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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
तो वह
की पूर्णता ही हो सकता है । इस विषय मे जैनेन्द्रजी प्रेम-तत्त्व पर विशेष बल देते हैं । नर-नारी प्रेम रस में जिस प्रकार सब मीठा ही मीठा नहीं रहता, खट्टा, कड़वा और तीखा भी उसमें गर्भस्थ चलता है, उसी प्रकार समस्त सांसारिक व्यवहार में यदि सत्य और प्रेम से प्रेरणा लेकर कुछ नकारात्मक वृत्तियाँ भी सक्रिय रहें तो उनसे हानि नहीं होगी । ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, क्रोध, ये सब विष हैं । जन-मानस इनको प्रासुरी और तामस हो मानता है । पर हिंसा की विधि से सत्य की अग्नि में फूँककर इन विषों को भी प्रमृत बनाया जा सकता है । तब ये भी प्रेम और कल्याण को पुष्ट और सिद्ध ही करते दीखेंगे। इन विषों को रस बनाना बहुत दुस्साध्य, पर अनिवार्य साधना है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता । हिंसा अर्थात् पर का निषेध अन्तर्मन में रहे, तो ऊपरी अहिंसा ढोंग वन जाती है, लेकिन अन्तर में हिंसा और प्रेम यदि स्थिर रहें, तो उनसे प्रेरित हिंसा अपना डंक और विप खो देती है, यह निर्विवाद है । जैनेन्द्रजी ने हिंसा हिंसा को स्पष्ट करने के लिए सम्भोग - प्रक्रिया का उदाहरण प्रस्तुत किया है। हिमा एवं प्राघात - प्रत्याघात उसमें निहित है । पर वे सब मिलकर युगल को कृतार्थ करते दीखते हैं । विराट् ब्रह्म की समग्र दृष्टि से विचार करें, तब भी यही तत्त्व स्थिर होता है । सृष्टि-प्रलय का कम ब्रह्म-शरीर में सतत चलता रहता है । जिसकी सृष्टि होती है और जिसका प्रलय होता है, दोनों ही एक समग्र ब्रह्म के अंग हैं, उससे 'पर' नहीं । इसीलिये ब्रह्म को हिंसा-अहिंसा से परे कहा गया है । उसके लिए न सृष्टि अहिंसा है, न प्रलय हिंसा । क्योंकि हिंसा-अहिंसा स्व-पर भाव से होती है, जो उसमें नहीं है । स्व पर भाव के मिट जाने पर सीमित उद्देश्य विराट् में परिवर्तित हो जाता है और ऐसा व्यक्ति जो कुछ भी करता है, वह हिंसा नहीं हो सकता । वह बस विराट् से तद्गत ही हो सकता है । लौकिक हिंसा - हिसा दोनों उसमें डूब जाते हैं, खो जाते हैं । जैनेन्द्रजी गांधीजी को उस विराट् से तद्गत मानते हैं और हिंसा-अहिंसा की व्याख्या में उन्होंने बार-बार गांधी- जीवन का हवाला दिया है । अमृतसर में जलियांवाला काण्ड से पीड़ित एक वृद्धा उनके सामने आयी । उसके दो बेटे गोलीकाण्ड में मारे गये थे । वह फूट-फूटकर रो रही थी। बिलख रही थी । उसे देखकर सभी उपस्थित लोगों की प्राँखों में आँसू भर आये । पर गांधीजी भावहीन रहें । उन्होंने बुढ़िया से पूछा, क्या तुम्हारे कोई और बेटा भी है । बुढ़िया ने 'हाँ' की तो गांधीजी ने तत्काल कहा, तो उसे भी तैयार करो, उसे भी काम आना है । गांधीजी की इस उक्ति को क्यों प्रेम से शून्य और हिंसामय न मान लिया जाय ? एक स्थूल दृष्टि अहिंसा भक्त ऐसी ही गलती करेगा । पर सूक्ष्मता से विचार करें, तो गांधीजी की उपर्युक्त उक्ति के पीछे कोई निर्दयता पर के कष्ट से अनुरंजित होने की प्रवृत्ति या हिंसा नहीं थी । विराट् मानवता के हित से तद्गत होने का सत्य ही