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जैनेद्र की दार्शनिक विचारणा
१३६ के प्रति हृदय के स्नेह का दान और स्व-पर सबके हित का प्रायास करना । किसी के प्रति भी द्वोष और निन्दा से शून्य होना । तीसरा है, सत्य का निर्भय सशक्त, पर विनम्र आग्रह । इस प्रकार पालित अहिंसा ही सत्याग्रह है। इस पद्धति में सत्याग्रही की स्थितप्रज्ञता, स्नेह-सिक्तता, कष्ट-सहिष्णुता और सर्वस्व-त्याग की तत्परता आदि शर्ते बहुत कठोर शर्ते हैं । सारी प्रक्रिया में द्वेष, क्रोध आदि के आवेश का पूर्ण अभाव वांछ्य है और जो कुछ भी किया जाना है, वह सर्वग्रासी सत्य की प्रेरणा से ही किया जाना है । सत्य की सर्वग्रासिता समग्र ब्रह्म, अंश, अहं और परस्परता, इन तीनों के तथ्य के पूर्ण ग्रहण से ही प्राप्त की जा सकती है। यह सत्य ही अहिंसा की शक्ति है । इसके बिना अहिंसा एक फटा ढोल है, जिसे गले में डाले फिरना हास्यास्पद बन जाता है। यदि सत्य की सूक्ष्म दृष्टि सतत रहे, तो अहिंसक को मात्र 'सीधा', 'भला' कहने का दुराग्रह कोई भी व्यवहार-निपुण व्यक्ति नहीं कर सकता । गांधीजी की सूक्ष्म सत्यनिष्ठता ब्रिटिश कूटनीतिज्ञों को प्राधी शताब्दी तक छकाती रही । सत्य की अग्नि के बिना अहिंसा राख-ढके बुझे कोयले के समान है और वह राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय तो क्या, व्यक्तिगत दायरे में भी शक्ति नहीं रहती। जैनेन्द्रजी अहिंसा के इस सत्य-पक्ष पर सबसे अधिक बल देते हैं, क्योंकि उनके अनुसार गांधीजी के बाद गांधीवादी विचारकों ने इस अनिवार्य तत्त्व 'सत्य' की उपेक्षा प्रदर्शित की है और केवल अहिंसा पर बल दिया है। हिंसा-अहिंसा
अहिंसा की अग्नि-परीक्षा तब होती है, जब विरोध में कोई ऐसा हठवादी अहं श्रा टकराये, जिस पर सविनय अाग्रह का कोई भी प्रभाव न हो । जब प्रेम की शक्ति ऐसे अहं को झुकाने में विफल हो जाय, तब क्या अप्रेम और हिंसा का आश्रय लिया जाय ? जैनेन्द्रजी 'झुकाने की चाह' और 'अप्रेम' इन दोनों उक्तियों के विरुद्ध हैं । इनके पीछे 'पर' के अहं का निषेध छुपा है । पर के अहं के पूर्ण स्वीकार के साथ अर्थात प्रेम का निषेध न करते हुए अहिंसक को अधिकार है कि वह उपलब्ध सत्य को कार्यान्वित करे । इस कार्यान्वयन में अपने से ईमानदार रहना बहुत जरूरी है। सत्य और प्रेम के उसके 'दावे' 'डिप्लोमेटिक' न हों। वह बड़े-से बड़े प्रात्म-त्याग को दाँव पर लगाने के लिए और घोर-से घोर कष्ट को सहने के लिए तैयार हो। उसमें पर के हठ के लिए दुःख हो, आत्म व्यथा हो, क्रोध न हो । इन सब शर्तों को पूरा करते हुए यदि सत्य की रक्षा के लिए अहिंसक से बल-प्रयोग भी यदि हो जाय तो वह, मैं समझता हूँ, जैनेन्द्रजी को अस्वीकार्य नहीं है । फिर भी जैनेन्द्रजी का विश्वास है कि यदि अहिंसक की निष्ठा पूर्ण हो और उसमें सत्य का तेज प्रखर हो तो उसका सविनय आग्रह विफल नहीं हो सकता । सत्याग्रह की विफलता में कारण हो सकता है