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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व विकता में बदला करती है । फिर प्रेम कल्पना नहीं है। व्यक्ति-स्तर पर उसका चमत्कार हम नित्य देखते हैं। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर गाँधी जैसे महापुरुषों ने उसका चमत्कार हमें दिखाया है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे नेहरूजी उसी मुहृद-नीति के प्रयोग सफलतापूर्वक कर रहे हैं। इसलिये प्रेम को कल्पना मानना मानव का अपमान करना ही समझा जाना चाहिये । हाँ, प्रेम-नीति की सफल सिद्धि तभी सम्भव है, जब उसके पीछे उदात्त काम की तीव्रता अधिक हो, उपयोगितावाद की जड़ता कम । निरस्त्रीकरण की समस्या का हल प्रेम की, ब्रह्मचर्य की इस तीव्रता में से ही आ सकता है। मात्र उपयोगितावाद के उलट-फेर में से वैसा होना असम्भव है। और विज्ञान पर अंकुश भी प्रेम-नीति ही लगा सकती है, समूहवादी कूट-नीति नहीं। समूह से, सवसे प्रेम वही कर सकता है, जो एक से प्रेम करने में समर्थ है । एक मूर्त है, समूह अमूर्त, वायव्य । इस विषय में जैनेन्द्रजी के विचार पहले रखे जा चुके हैं। सत्य संयुक्त अहिंसा
जैनेन्द्र-दर्शन के तीसरे तत्त्व परस्परता का यत्किचित स्पष्टीकरण मैंने ऊपर किया। परस्परता को अलग तत्त्व का रूप देने का उद्देश्य था ग्रह की सापेक्षता पर बल देना । अहं की प्रशता और सापेक्षता अस्तित्व का सबसे बड़ा सत्य है । किसी भी अहं-चेतना को नितान्त रूप में जाना और समझा नहीं जा सकता। जैनेन्द्र-दर्शन का चौथा तत्त्व अहिंसा इसी तथ्य को व्यावहारिक रूप देने का प्रयास करती है । जैनेन्द्रजी के अनुसार अहं में अपनी सापेक्षता की चेतना ही अहिंसा है और नितान्तता का हठ हिंसा है। नितान्तता अव्यवहार्य और अप्रकृत है। इसीलिए उसकी हठ पर की अवमानना और 'स्व' के शेष 'पर' आरोप को प्रेरित करती है । यही हिंसा है। सापेक्षता की अनुभूति 'पर' के स्वीकार और शेष के सम्मुख 'स्व' के समर्पण पर बल देती है । यह अहिंसा है । हिंसा-अहिंसा की यह व्या या इन्हीं के लौकिक अर्थों-जीववध, जीव-रक्षण-से कहीं अधिक व्यापकः वैज्ञानिक और व्यावहारिक है। यह व्याख्या पूर्वोक्त ब्रह्म, अहं और परस्परता में निहित तथ्यवाद का स्वाभाविक विकास है। ऊपर जिस नैतिकता अथवा प्रेम-नीति का जिक्र किया गया था, अहिंसा उसी का अधिक वैज्ञानिक स्पष्टीकरण है । अहिंसा में तथ्य यानी सत्य की शक्ति और प्रेम के रस दोनों का ग्रहण है । मानव का सम्पूर्ण आचार-शास्त्र जैसे इस एक शब्द में समा गया है। महात्मा गांधी ने इस अहिंसा-शास्त्र को जीवन-व्यवहार में सर्वोच्च स्थान दिया था। किसी भी अहिंसात्मक आचरण को तीन अंगों में बांटा जा सकता है । पहला अंग है, समग्र की अपेक्षा में समस्या के सत्य की अर्थात् स्व और पर की स्थिति की सत्य अवधारणा (Right assessment) दूसरा है, सभी सम्बद्ध व्यक्तियों