________________
जैनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा
१३७
दान करना ही ब्रह्मचर्य कहला सकता है । जो स्त्र को शेष सबको दे डालने के लिये आतुर बन चुका है, वह शरीर उसकी सीमानों - वासनाओं में बँधा रह ही नहीं सकता । वह ब्रह्ममय बन जाता है । वह 'पर' का निषेध नहीं, उसका स्वागत करता है । ब्रह्मचर्य को इन्द्रिय-निग्रह के अर्थ तक सीमित करना जैनेन्द्रजी हास्यास्पद समझते हैं । इस विषय में गाँधीजी का उदाहरण हमारे सामने है । वे महात्मा इन्द्रिय-निग्रह के कारण नहीं, ग्रहं की विराटता के कारण कहलाये । श्रहं के परिकार - विस्तार के मार्ग में इन्द्रिय-निग्रह उन्हें स्वतः सिद्ध हो गया । स्व, अहं अथवा काम की विराटता को जैनेन्द्रजी ने और अधिक सूक्ष्मता से समझाया है । वे चंगेज खाँ और बुद्ध, हिटलर और गाँधी के प्रयासों के नीचे काम की विराटता को ही पाते हैं । उनके अनुसार उपर्युक्त विभूतियों के सामने अनन्त जन-विस्तार जैसे स्त्री के समान ही फैला पड़ा था और उसमें उनको उन्मुक्त गति प्राप्त थी । चँगेजखाँ और हिटलर की गति को जैनेन्द्रजी भय और हट प्रेरित मानते हैं तथा बुद्ध-गाँधी की गति को प्रेम - समर्पण प्रेरित । इन चारों के पीछे असंख्य लोग उसी प्रकार पागल हो उठे थे जैसे कृष्ण के पीछे गोपियाँ । यदि काम का शरीर बद्ध अर्थ न लेकर उदात्त सूक्ष्म अर्थ लिया जाय, तो मानव की हर सक्रियता के नीचे 'वह मुझमें हो' – 'मैं उसमें हूं' इन दो मूल कामनायों में से एक अवश्य मिलेगी । काम को विराटता तब मिलती है, जब 'वह मुझमें हो', 'मैं उसमें हूं' के स्थान पर क्रमशः 'सब मुझमें हो', - मैं सबमें हूँ' । उक्तियाँ मानव- कामनाएँ बन जाती हैं ।
काम और अर्थ (उपयोगितावाद )
मानव की मानसिकता और कार्मिकता का निर्माण दो तत्त्वों से होता हैप्रेम-प्रेम मूलक काम से और सांसारिक उपयोगितावाद अर्थात् अर्थ से । दम्पति, परिवार, सम्प्रदाय, समाज, राष्ट्र और विश्व ये क्रमशः बड़ी होती संस्थाएँ काम और अर्थ के इस द्व ेत से ही मिलकर बनी हैं। ग्राज उपर्युक्त सभी संस्थानों में अर्थ-पक्ष की प्रधानता और काम अर्थात् प्रेम-पक्ष की क्षीणता हो चली है । जैनेन्द्रजी चाहते हैं कि हमारी सभी संस्थाओं का मूल उत्स प्रेम में हो । अर्थ में से रस ग्रहण करके ही अपना विकास विस्तार करे । काम और ग्रथं, प्रेम और उपयोगिता का समन्वय धर्म से होता है, जिसका वैज्ञानिक अर्थ है, नीति । नीति- शोषण की नहीं पाषण की; कूट नहीं सरल । हमारा दाम्पत्य समाज, उत्पादन, वितरण और शासन कामअर्थ के संयोग से प्रसूत प्रेम-नीति से चले । अनन्त ग्रहं चेतनाओं में उपस्थित घोर विषमताओं के समक्ष प्रेम-नीति का प्रचलन और पालन बहुत कठिन दीखता है, पर यदि प्रेम का अस्तित्व है तो यह फलित होने के लिये ही है, निष्फल होने के लिए नहीं । जैनेन्द्रजी कल्पना के मूल्य को भी खोना नहीं चाहते । कल्पनाएँ ही वास्त