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- जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व आकर्षण । 'मैं उसमें हूं' यह चाह स्थूल पिण्ड में निहित गति और शक्ति की चाह है । पुरुष उसी का प्रतीक है और उसकी प्रधान वृत्तियाँ पारोप और प्रगति हैं । जिस प्रकार शून्य पिण्ड को धारण करता है और उसकी गति-प्रगति का क्षेत्र बनता है, उसी प्रकार स्त्री, पुरुष को, शरीर, मन, बुद्धि और भावना हर दृष्टि से धारण करती और उसकी प्रगति को गति देती है । जैनेन्द्रजी आज की सभ्यता को पुल्लिगी सभ्यता कहते हैं, क्योंकि उसमें गति और हिंसा की प्रधानता है। नारी की ग्रहण वहन-वृत्तियों का समुचित योग उसे नहीं मिल पाया है । तभी इस वैज्ञानिक सभ्यता में इतना उद्वेग और विषम असमन्वय है। स्त्री के संयोग से पुरुष अहं में एक स्निग्ध द्रवणशीलता आती है । द्रवित होना, अरूप-शून्य बनना जैसे पुरुष की अन्तर्तम की चाह है, जिसे अपनी गति-प्रगति में वह कितना भी हुँके, जो दब नहीं पाती । इसी प्रकार स्त्री की अन्तस्थ कामना रहती है, पुरुष को स्वयं में लेकर उसे गति देकर ग्रह-पथ ( Orbit ) में फेंक देना। स्त्री-पुरुष के मध्य, उपर्युक्त अन्तस्थ कामनाओं से प्रेरित घात-प्रतिघात निरन्तर चलते रहते हैं और यही मानवीय सक्रियता के मूल गुह्य प्रेरक बन जाते हैं । आज सामूहिक स्वार्थों एवं महत्त्वाकांक्षाओं ने नैसिंगक व्यक्तिगत प्राकर्षण-अपकर्षण के उपर्युक्त रूप और क्रम को विचलित कर दिया है । स्त्री और पुरुष के बीच सामूहिकता आ गयी है, जिसने प्रगतिशील नर-नारियों को परस्पर समर्पित होने से रोक दिया है और उनमें एक गहरी घुटन पैदा कर दी है। जैनेन्द्रजी नर-नारी के बीच किसी वायव्य आदर्श अथवा स्थूल रूढ़ि को नहीं, शुद्ध प्रेम को वर्तमान देखना चाहते हैं । प्रेम सहनशील और हठशन्य होता है । प्रिय की प्रेमी से अधिक हित-कामना और कोई भी नहीं कर सकता । प्रेमी प्रिय के अहं को सबसे अधिक जानता-पहचानता है और उसका विकास-विस्तार ही उसका लक्ष्य बन जाता है । इससे दोनों को ही समग्र तप्ति मिलती है और कृतार्थता का अनुभव होता है। इस तृप्ति और कृतार्थता के स्व की सीमाएं टूटतीं और व्यक्ति परोन्मुख-ब्रह्मोन्मुख बनता है । इस प्रकार जैनेन्द्रजी द्वारा की गयी सेवस की व्याख्या नर-नारी के शरीर-सम्भोग को न तिरस्कृत करती है, न ही उसमें बँधती है । शरीर सम्भोग प्रेम का स्वाभाविक परिणाम भर रह जाता है । प्रधान चीज है प्रेम, जिससे मिली तृप्ति शरीर-सम्भोग से कहीं गहरी, स्थायी और सर्वग्रासी होती है। यह मानव की सम्भावनाओं को विस्तृत करती और उसके कदमों को विराट् ब्रह्म की ओर मोड़ती है। अहंचर्य, ब्रह्मचर्य
जनेन्द्रजी का 'ब्रह्मचर्य' का अर्थ भी प्रसिद्ध, लौकिक नहीं है । अपनी वृत्तियां सब ओर से हटाकर अहं में केन्द्रित कर लेना अहंचर्य है, शेष सबको अपने प्रेम का