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________________ जैनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा १३५ हो सकता है, उसका समूह-विवेक में विलीन हो जाना नहीं । संगठन 'एक के स्वीकार- शेष के निषेध' इस स्फूति से ही प्रेरित होते हैं । किन्तु व्यक्ति के अन्य व्यक्ति के प्रति प्रीति-भाव में शेष के प्रति निषेध-भाव अनिवार्य नहीं मिलता। इस प्रकार मानव-मानव की परस्परता मूल व्यक्ति-अहं के परिष्कार एवं विकास का साधन बन जाती है और ऐसे व्यक्ति-अहं सामाजिक-राष्ट्रीय अहं-चेतनाओं में से हिंसात्मक डंक नोच फेंकने और उन्हें नैतिक स्तर तक उठाने में समर्थ हो जाते हैं। व्यक्ति का व्यक्ति के द्वारा जैसा उदात्त निर्माण सम्भव है, वैसा सामूहिकता के हाथों सम्भव नहीं है । महात्मा गाँधी व्यक्तिगत सम्पर्क और प्रीति के माध्यम से ही पंडित नेहरू, डॉ० राजेन्द्रप्रसाद, सरदार पटेल जैसे व्यक्तित्व भारत को दे पाये, एक संगठनवादी जोश और रोष में से वैसा हो पाना दुःसाध्य था । इस प्रकार जनेन्द्रजी व्यक्ति-व्यक्ति के सम्पर्क, प्रेम और समर्पण में वह नैतिक विद्युत् देखते हैं, जो एक साथ लाखों की मानसिकता को उदात्त और प्रकाशमय बना देने में और उनकी सक्रियता को सर्वभूतहित की ओर मोड़ देने में समर्थ है । व्यक्ति-मेधा ने ही विज्ञान का सृजन किया है। व्यक्ति-हृदय ही उसकी प्रलयंकरता को मुट्ठी में बांधने में सफल होगा। यह आश्चर्य का ही विषय है कि भौतिक प्रण की विराट् सम्भावनाओं के प्रति सजग वैज्ञानिक द्वारा मानव-चेतना की घोर उपेक्षा कैसे सम्भव हो पा रही है। सेक्स, प्रेम, साहचर्य ___ मानव-मानव की परस्परता का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग नर-नारि संयोग अर्थात् मेक्स है । पेक्स पर जैनेन्द्रजी ने बहुत लिखा है । वे सेक्स को उपेक्षणीय अथवा घण्य नहीं मानते । वे उसका कार्य-प्रभाव क्षेत्र मात्र संतति-उत्पादन तक भी सीमित नहीं करते । सेक्स को वे मूलभूत शक्ति और स्फूर्ति मानते हैं, जो व्यक्ति-अहं का परिष्कार करने और उसके व्यक्तित्व का निर्माण करने में समर्थ है। व्यक्तिअहं का नग्नतम वस्तुवादी रूप सेक्स क्षेत्र में ही प्रकट होता है और यहाँ जो संस्कार और प्रभाव वह ग्रहण करता है, वे उसके सारे जीवन को और उसके जीवन के माध्यम से सारे विश्व को प्रभावित करते हैं । सेक्स का यह नर-नारी द्वैत कैसे निर्मित हमा? इस प्रश्न की जैनेन्द्रजी ने बड़ी अनूटी व्याख्या की है । वे कहते हैं कि समग्र में अहंचेतनामों के पृथक् होते ही उनमें पर के सान्निध्य की चाह पैदा हुई। इस चाह के दो रूप हो गये । एक ने चाहा 'वह मुझमें हो।' वह अहं स्त्रीत्व-प्रधान हो गया। दूसरे ने चाहा 'मैं उसमें हूँ' और यह अहं पुरुषत्व-युक्त हो गया। स्त्रीपुरुष एक ही अहं के दो रूप हैं और इस प्रकार अर्द्धनारीश्वर की पौराणिक कल्पना को जैनेन्द्रजी स्वीकार करते हैं । वह मुझमें हो ।' यह चाह सामने की चाह है और स्त्री अवधारण-शक्ति की प्रतीक है । उसकी प्रवृत्तियाँ हैं ग्रहण, वहन और व्याप्त
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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