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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व अभिशाप के स्थान पर वरदान बन सकेगा और वह साध्य नहीं साधन की औचित्य सीमा में बँध जायेगा। मानव-मानव की परस्परता
मानव मानव के सम्बन्धों की समस्या मानव के सामने उपस्थित सबसे बड़ी समस्या है । इस वैज्ञानिक युग की गुत्थी ही यह है कि हमने मानव-प्रकृति की परस्परता को मानव-मानव की परस्परता से अधिक महत्त्वपूर्ण मान लिया है और हम चेतन मानवों की सम्भावनाओं को भी मानवेतर अथवा जड़-प्रकृति के गणना-प्रक्रि. यात्मक माप-दण्ड से ही नापने का दुःसाहस करते हैं । और उसी को वैज्ञानिक कहते हैं । समाजवाद-साम्यवाद में यही हुआ है । व्यक्ति के प्रति अविश्वस्त इन प्रणालियों में मानव को अन्न-वस्त्र-सेक्स और सांस्कृतिक कार्यक्रम मात्र से तृप्त रहने वाला यन्त्र मान लिया गया है । जैसे उसके अहं की सत्ता ही वहाँ अस्वीकृत है । असाम्यवादी देशों में भी राजनीतिक-आर्थिक स्थितियाँ एवं आवश्यकतायें कुछ ऐसी हैं कि व्यक्ति को उपयोग का उपादान भर ही मानने को शासन-यन्त्र बाध्य हैं । सभ्यता का अर्थ भौतिक-स्तर का उन्नयन और संस्कृति का अर्थ कलात्मक मनोरंजन बन गया है। अण्वस्त्रों के आतंक की छाया है, सामूहिक अहं-चेतना की वेदी पर व्यक्ति-अहं के समुचित परिष्कार एवं विकास की सम्भावनाओं की बलि दे दी गई है । उपयोगितावादी योजनाओं के लिए मानव-यन्त्रों के थोक उत्पादन का लक्ष्य ही सरकारों के सामने रहता है। जैनेन्द्र मानते हैं कि यह बहुत स्वस्थ और संस्कृत प्रक्रिया एवं परम्परा नहीं है । इससे व्यक्ति-अहं में ज्वरोत्पीडन की-सी स्थिति पैदा हो जाती है। मानवमानव के बीच सरकार और पार्टी की लौह-भित्ति खड़ी दीखती है और वह व्यक्ति की परस्परोन्मुखता के मार्ग में सहायक होने के बदले बाधक ही सिद्ध होती है। मानवों के जड़वत् उपयोग को जितने बड़े पैमाने पर आज साधा जा रहा है, उतने बड़े पैमाने पर इतिहास में कभी भी साधा नहीं गया था। और ऐसा राष्ट्रीय-सामूहिक अहंचेतनाओं की तृप्ति के लिए वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक पद्धति से किया जा रहा है, प्राचीन शारीरिक गुलामी की प्रणाली से नहीं । जनेन्द्रजी मानव-मानव की परस्परता के उपर्युक्त पक्ष में सबसे बड़ा दोष यह देखते हैं कि किसी भी समूह-अहं के प्रति निष्ठावान् मानव अन्य मानवों के और समग्र ब्रह्म के प्रति समर्पित रह ही नहीं पाता अथवा वह इतना यन्त्र बन जाता है कि किसी के प्रति भी निष्ठा रखने की उसमें झचि और शक्ति ही वर्तमान नहीं रहती। अाज सामूहिक महत्त्वकांक्षाओं का ऐसा भीषण दबाव व्यक्ति-ग्रहं पर पड़ा है कि वह किंकर्तव्यविमूढ़ बन गया है और उसमें वैज्ञानिक प्रगति को सामने और झेलने में समर्थ मानसिकता विकसित नहीं हो पा रही है । जनेन्द्रजी के अनुसार ऐसी मानसिकता का प्राधार मानव का मानव के प्रति प्रेम