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जनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा
१४३ है, जो व्यक्ति प्राण और चेतना का आधार है, जो पुरुष है, शरीरी है और शरीर में 'मैं' करके स्थित है । शास्त्रों में इस प्रात्मा को ब्रह्म का अंश कहा गया है। शास्त्रानुसार यही वह है, जो नाना जन्म और शरीर पाता और कर्मफल भोगता है। जैनेन्द्रजी ब्रह्म को ही अन्तिम स्थिर तत्त्व मानते हैं। इसलिए आत्मा को इतनी नितान्त क्षमता वे नहीं दे पाते कि वह ब्रह्म से निरपेक्ष होकर कर्मफल के अनुसार एक शरीर से दूसरा शरीर प्राप्त कर चला जाय । उनका विश्वास है कि हमारा प्रात्मा शरीर की समाप्ति के साथ ही ब्रह्म में विलीन हो जाता है। जिसका पुनर्जन्म माना जा रहा है, उसमें वही विलुप्त आत्मा वर्तमान है अथवा कोई अन्य अथवा कई अन्यों के अंश, यह कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता। कौन कह सकता है कि पेड़ का यह पत्ता वही है, जो पिछली पतझड़ में वृक्ष की शाखा की इसी टहनी पर से टूटा था। चेतना के अजस्र प्रवाह में असंख्य जीव बुलबुलों के समान उठते और खो जाते हैं । जैनेन्द्रजी पुनर्जन्म को इसी रूप में समझ पाते हैं । आत्मा को वे समग्र अहं से भिन्न नहीं मान पाते । यह आत्मा अथवा अहं जब बिखरता है, तो उसके विभिन्न तत्त्व (पंचभूत, चेतना, कामना, विचार आदि) ब्रह्म के समानान्तर तत्त्वों में उसी प्रकार घुल जाते है, जैसे बूंद सागर में एकरूप हो रहती है । साथ ही नये अहं भी निरन्तर उठते रहते हैं । इस प्रकार विलय और प्रकट होने का यह क्रम अबाध चलता रहता है । प्रात्मा उसी रूप में अजर, अमर, अनादि, अनन्त है कि ब्रह्म वैसा है । आत्मा के नित्य व्यक्तित्व को, इस व्यक्तित्व के कर्माधीन पुनर्जन्म को जैनेन्द्रजी व्यवहार
और धर्म के लिए उपयोगी मान लें, पर वैज्ञानिक नहीं कह पाते; क्योंकि ब्रह्म के अतिरिक्त और किसी को भी नित्य वे स्वीकार नहीं कर सकते । प्रश्न उठता है कि तब उन कर्मों का क्या होता है, जो व्यक्ति जीवन भर करता है ? जैनेन्द्रजी कहते हैं कि जीवनभर के कर्म भी सक्षम रस ( Idea ), व्यथा रूप ग्रहण कर वाणी की तरह अन्तरिक्ष में व्याप्त हो जाते हैं । नये अहं को अन्य तत्त्वों के साथ-साथ कर्म-रस में से भी एक भाग मिलता है । इस प्रकार व्यक्ति का कर्म, मात्र व्यक्ति का न रहकर सारे ब्रह्म का बन जाता है और व्यक्ति की जिम्मेदारी घटने के बजाय और बढ़ जाती है। काम-प्रेम-परिवार
इस विषय पर जैनेन्द्र की उक्तियों एवं मान्यताओं की बड़ी कटु आलोचना हुई है और उन्हें अश्लील एवं अनैतिक घोषित किया गया है । अश्लील और अनैतिक ये दोनों समाज सापेक्ष शब्द हैं । पर समाज क्या है ? क्या वह आर्थिक-राजनैतिकधार्मिक संगठन मात्र है । जब समाज का अर्थ संगठन किया जाता है, तब उसके नीचे अस्तित्व-रक्षा का प्रश्न प्रधान बन जाता है, परस्परता का तत्त्व गौण । तब