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________________ जैनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा १३१ कार्य-कारण व्यवस्था, विशेषकर फ्रायड की व्यक्तिनिष्ठ व्याख्या उन्हें मान्य नहीं । वे व्यक्ति अहं की स्व-केन्द्रिता और पर निषेधक हठवादिता को ग्रंथियों के बनने का कारण और उसकी समर्पणात्मकता को उनके खुलने और मानस के स्वच्छ होने का उय मानते हैं । पर ग्रन्थि शब्द के प्रयोग में ही जैनेन्द्रजी की विशेष श्रद्धा नहीं है । वे अहं और ब्रह्म (समय) की इस परस्परता को और व्यक्ति के ब्रह्म (समग्र) द्वारा वृत होने की सत्यता को ही मनोविज्ञान का आधार कहते हैं । जुरंग ने अवचेतन के भेद किए हैं, व्यक्तिगत अवचेतन और सामूहिक अवचेतन और इस प्रकार उसने व्यक्ति-म‍ - मानस के नीचे समग्र के अस्तित्व को प्रांशिक रूप में स्वीकार किया । यदि इस परस्परात्मक दृष्टि से विचार किया जाय, तो मनोविज्ञान पर एक नया प्रकाश पड़ता है और स्वयं मनोविज्ञान की ग्रंथियां खुलती हैं। तब अवचेतन-चेतन बुद्धि-सम्बुद्धि परस्पर विरोधी होने के बदले सहयोगी सिद्ध हो जाते हैं । जुरंग ने इस सहयोग की सम्भावना की ओर संकेत किया है । व्यक्ति मानस को ग्रन्थियों की गुलभट मात्र मान बैठना और उन ग्रंथियों को मात्र साँसारिक तृप्तियों से खोलने का प्रयास करना रोग का सही वैज्ञानिक निदान नहीं है। मानव के प्रति इतना ग्रविश्वासी होना और , तल से छूने का प्रयत्न मन और बुद्धि से बहुत करना प्रभावी नहीं हो सकता । गहरे में उसके अहं की दुधारी उसके रोग को इतने ऊपरी उसके रोग का मूल इंद्रिय, ( पर-स्त्रीकार, पर-निषेधात्मक) प्रवृत्तियो में निहित है । श्रहं जीव को ब्रह्म की ओर से मिली एक सत्ता है । जीव की कृतार्थकता उस सत्ता को समर्पित करने में है, कि हठ से उसे जड़ीभूत और ग्रंथिमय बनाने में श्रहं की कसौटी परस्परता अहं तत्त्व का अध्ययन इतने से ही पूरा नहीं हो जाता । अहं की कसौटी पर - स्परता है । अहं का पर- स्वीकार और समर्पण भाव उसका शुक्ल पक्ष, उसकी प्रियता और नैतिकता है । और उसका पर-निषेधात्मक हठवाद उसकी अप्रियता और अनं तिकता । इस नैतिकता अनैतिकता की जाँच तभी हो सकती है, जब एक ग्रह अन्य चेतन-अचेतन अहं शक्तियों के सम्पर्क में आता है । ऊपर ग्रहं और ब्रह्म की परस्प रता का जिक्र आ चुका है । इस परस्परता पर विस्तृत विचार किए बिना श्रहं की गति और उसके आचरण का पूरा ज्ञान नहीं हो सकता और शेष के साथ उसकी सापेक्षता को समझा नहीं जा सकता । हम ग्रागे देखेंगे कि सभ्यताओं-संस्कृतियों की उन्नतावनत अवस्था इसी बात पर निर्भर करती है कि परस्परता को कितना प्रिय, सहज और समग्र वे बना पायीं । परस्परता की इस समस्या के हल की कोशिश में ही सारा ज्ञान-विज्ञान विकसित हुआ । इस समस्या के कई रूप हैं । और विभिन्न चेतन-अचेतन ग्रहं शक्तियों की परस्परता; प्राणि-जगत् और भूत-प्रकृति की परस्प
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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