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________________ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व १३० उसके निषेधात्मक अहं के हाथों में पड़ जाने के कारण ही हुआ है । इसलिये समस्या विज्ञान की नहीं, 'अहं' की है । ) श्राज बुद्धिवादियों एवं दार्शनिकों का सबसे बड़ा कत्र्तव्य इस अहं का संस्कार करना ही हो जाता है ( और ज़ब श्रहं संस्कृत अर्थात् शेष के प्रति समर्पणात्मक हो जाता है, तब व्यक्तिवाद और समाजवाद - समूहवाद दोनों ही समान रूप से कल्याणमय बन जाते हैं । ऐसा न होने पर व्यक्ति समाज के हाथों और समाज व्यक्ति के हाथों में खिलौना बनकर रह जाता है । हो सकता है, अहं का ऐसा परिष्कार असम्भव कल्पना ही माना जाय, पर उसे प्रज्ञा के सामने निरन्तर उपस्थित रखे, यह मानवता के बुद्धिर्ततत्त्व का कर्त्तव्य बन जाता है । अहं को इस रूप में देखना निश्चय ही जैनेन्द्र- विचारणा की सबसे महत्त्वपूर्ण देन है । व्यक्ति श्रहं को गालियाँ देने से हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँचेगे, क्योंकि जैनेन्द्रजी का कहना है कि हम हर घड़ी व्यक्ति ( प्रज्ञा - शक्ति - भावना ) के ही सम्पर्क में तो श्राते हैं । तथाकथित समाज घटक से हमारा सामना कभी नहीं होता । अंश श्रहं ब्रह्म प्रावृत यानी अहं में अभि अहं के सम्बन्ध में दूसरा सबसे विशेष तथ्य यह है कि श्रहं अंश और शेष भगवत्ता (पूर्ण अस्तित्व) के बीच एक अनिवार्य द्वार है, जिस प्रकार द्वार के माध्यम से घर शेष सृष्टि के भौतिक तत्त्वों, आकाश, पर्वत, जल, धरती, अन्न तथा अन्य प्राणियों से जुड़ा होता है, उसी प्रकार अंश भी शेष भगवत्ता के त, चेतना, कामना, नीति, विचार आदि सभी अंगों से जुड़ा है । ब्रह्म स्वयं को अंश व्यक्त करता है । अहं शेष का अंश है । स्वयं को अंश मानने की भावना ग्रहं में जितनी विकसित और दृढ़ होती है, उतना ही अहं विस्तृत बन जाता है और पूर्णता उतने ही वेग से व्यक्ति-मानस के माध्यम से अभिव्यक्त होने लगती है । तब अहं की दीवारें जैसे पारदर्शी बन जाती हैं । सम्पूर्ण ब्रह्म अहं में फूटा पड़ने लगता है । इस प्रकार जैनेन्द्र व्यक्त मानसिकता ( Conscious Mind) के नीचे किसी रहस्यमय अन्धकारमय ग्रन्थिभय अवचेतन मानसिकता ( Sub- Couscious Mind) की सत्ता को नहीं, ब्रह्म को ही मानते हैं । अवचेतन के सत्ता से एक कुटिल आतंक की -सी ध्वनि निकलती है । उसे हम अशुभ मान लेते हैं । पर व्यक्त, दृश्य, मानव-व्यक्तित्व के नीचे जो अव्यक्त, अदृश्य छुपा है, उसे कुटिल और अशुभ मानने की आवश्यकता जैनेन्द्रजी को नहीं दीख पड़ती । वरन् वे उस तथाकथित अव्यक्त, अदृश्य अवचेतन को ब्रह्म की संज्ञा देते हैं, ब्रह्म में अनन्त सम्भावनाएँ निहित हैं । यदि व्यक्ति - श्रहं शेष भगवत्ता के प्रति उन्मुख रहे, तो व्यक्ति की सम्भावनाएँ गुणानुगुणित होती हैं । यदि श्रहं सिर्फ स्व में केन्द्रित रहे, तो वे संकुचित अवरुद्ध होती हैं । जहाँ तक पाश्चात्य मनोविज्ञान के ग्रन्थि-सिद्धान्त का सम्बन्ध है, जैनेन्द्रजी उसे यथावत् स्वीकार नहीं करते । उसकी
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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