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जैनेन्द्र को दार्शनिक विचारणा प्रमाणिक, मानसिक, बौद्धिक ) का ही समावेश नहीं है, उसकी दोनों प्रकार की प्रवृ. त्तयों का भी उसमें ग्रहण है । ये प्रवृत्तियाँ हैं-प्रश का शेष के प्रति मत समर्पण का भाव और उसका. शेष के प्रति निषेध और हठ का भाव । इन दोनों प्रवृत्तियों को ही जैनेन्द्र जी क्रमशः अहिंसा एवं हिंसा नाम देते हैं और ये ही द्वन्द्व की आधारशिला हैं। यह है जैनेन्द्रजी का 'अहं' जिसकी सही समझ बहुत आवश्यक है । इस 'अहं' को लौकिक, निषेधात्मक अर्थ में ग्रहण करके ही जैनेन्द्रजी के कई आलोचक उनके पात्रों की त्रुटिपूर्ण पालोचना कर गये हैं। वास्तव में किसी भी मानव अथवा धारा को सही रूप में समझने के लिये उसके 'अहं' को उपर्युक्त सर्वागीण रूप में ( अस्तित्व एवं प्रवृत्ति दोनों दृष्टियों से ) आत्मगत कर लेना अनिवार्य है, नहीं तो उसके प्रति दोषपूर्ण एकांगी रुख अपनाने का खतरा हमें उठाना होगा और हम घटना अथवा समस्या के प्रति पूर्ण न्याय नहीं कर पायेंगे । सहानुभूति का अर्थ दम्भ दिखाना नहीं है । उसका अर्थ है, विषयी द्वारा विषय के साथ, विषय की दृष्टि से सोचना, अनुभव करना। तभी हम समक्ष मानव अथवा धारा विशेष का गूढ़, सत्य ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। संगठित सामूहिक अहं
/ जैनेन्द्रजी की मान्यता है कि 'अहं' केवल व्यक्ति का ही नहीं होता, समूह का भी संगठित 'मह' होता है। उनका कहना है कि राष्ट्रवाद, पूजीवाद और समाजवाद ऐसे ही संश्लिष्ट संगठित 'अहं' हैं । सामूहिक 'अहं' का आचरण ठीक व्यक्तिगत अहं जैसा ही होता है । जैनेन्द्र जी इस विश्वास का खण्डन करते हैं कि समूहों, संगठनों का प्राचरण अनिवार्य रूप से व्यक्ति को प्रोक्षा ही अधिक उदार अहिंसात्मक एवं शुभ होता है। उनका कहना है, दायरा फैल जाने से प्रकृति और प्रवृत्ति में अन्तर नहीं पड़ जाता । व्यक्ति हो या समूह, जब तक उसका 'अहं' शेष के प्रति स्वीकारास्मक-समर्पणात्मक नहीं होगा, तब तक उससे कल्याण की सम्भावना नहीं है । इसलिए वे राष्ट्रवाद, पूंजीवाद या समाजवाद के प्रशंसक नहीं दीख पाते, क्योंकि ये सभी छोटे-बड़े दायरे हठवादी हिंसात्मक रुख अपनाकर खड़े होते और चलते हैं। जितना सीमित हित ये कर पाते हैं, उससे कहीं असीम द्वन्द्व, त्रास एवं ह्रास के प्रेरक ये ज्ञान ही बन जाते हैं । जैनेन्द्र जी की मान्यता है कि व्यक्ति, समूहों और संगठनों के अन्तर्गर्भ में से जब तक अहं की इस निषेधात्मकता और हठवादिता को पहचाना और पकड़ा नहीं जायगा और उसे समर्पणात्मक, समन्वयात्मक नहीं बनाया जायगा, तब तक युद्धों का समूलोन्मूलन असम्भव है । जनेन्द्रजी अाज के प्रातक और त्रास का जिम्मेवार विज्ञान को नहीं, 'अहं' के इस पर-निषेधात्मक रुख को ही मानते हैं । उनकी सम्मति में विज्ञान सहायक है । वह जो अबरोधक बना है, वैसा