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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व हैं । अपनी-अपनी पात्मता रखते हैं । 'प्रहन्ता' और 'पात्मता' को यहाँ प्रचलित लौकिक अथवा नैतिक अर्थ में न लेकर वैज्ञानिक अर्थ में ही लेना होगा । प्रहन्ता अर्थात् अंश का पूर्ण से भिन्न अस्तित्व और आत्मता अर्थात् अंश का समग्र व्यक्तित्व । जैनेन्द्र इस व्यक्तिगत अस्तित्व के 'अहं' को सृष्टि और जीवन का केन्द्र मानते हैं, क्योंकि 'अहं' की सत्ता के साथ ही सृष्टि और जीवन का प्रारम्भ है और उसके क्षय के साथ उनका विलय । प्रहं की सजगता और सक्रियता
वैज्ञानिक अर्थों में जीव और पिण्ड दोनों के 'अहं' की सत्ता स्वीकार करते हुए भी व्यावहारिक अर्थों में चेतन प्राणियों के ही 'अहं' को जाना आर माना जाता है। प्राणि-मात्र में भी मानव-प्राणी का 'अहं' सर्वाधिक सचेत और सतेज है और उसमें भगवत्प्रवाह के अनुभव उसकी अभिव्यक्ति और उसको प्रभावित करने की सर्वाधिक क्षमता है। मानवेतर प्राणी भगवत्प्रवाह का अांशिक अनुभव भले ही कर लें, पर उसकी अभिव्यक्ति और उसको प्रभावित कर पाने का विवेक-बल उनको नहीं मिला है । अन्य प्राणियों का 'अहं' रूढ़ और जातिगत है, जब कि मानवीय 'अहं' व्यक्तिगत और विकासशील है। यह विकासशीलता मानव को प्राप्त प्रज्ञा के कारण ही सम्भव हुई है। प्रज्ञा ब्रह्म के संकल्प एवं विचार ( Idea ) का अंश है, जो मानवेतर जीवों को उपलब्ध नहीं है । उनके मानस का विकास चेतना-स्तर तक ही हुआ है ? उनमें ( Instincts ) की प्रधानता है । मानव में इन्यटिक्टस हैं, पर प्रज्ञा उनके ऊपर स्थापित है । प्रतीत होगा कि यहाँ 'अहं' का अर्थ व्यवितगत या जातिगत मानस अथवा चरित्र हो गया है और भौतिक अस्तित्व की उपेक्षा हो गयी है । पर भौतिक अस्तित्व समस्त प्राणियों में इतना अधिक स्थिर और उसका विकास इतना अधिक अदृश्य है कि वह सविवेष नहीं रहता और मानसिक 'अहं में निहित ---स्वीकृत मान लिया जाता है । इस प्रकार 'अहं' अंश के अस्तित्व ही नहीं, उसकी गति और उसके आचरण-चरित्र का पर्याय भी बन जाता है। वस्तुतः ग्रंशता के अननुभूत अस्तित्व से ही नहीं, अंश द्वारा उसकी सचेत अनुभूति और क्रिया-प्रतिक्रिया से भी अहं का प्रारम्भ है । अपने अस्तित्व के प्रति इस सजगता और सचेत सक्रियता को ही जैनेन्द्रजी अहं नाम देते है । वैसे अहं कोई पृथक भौतिक तत्त्व नहीं है। समग्र प्रहं को समझना
___ अहं का लौकिक एवं नकारात्मक भाव अहंकार शब्द में निहित है, जिसका अर्थ गर्व या घमण्ड किया जाता है। पर जैनेन्द्र के 'अहं' का यह सीमित अर्थ नहीं है । वह समग्रात्मक है। उसमें सिर्फ अंश के अस्तित्व के, सभी स्तरों ( भौतिक,