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________________ जैनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा १२७ को दूसरे अंश की आँखों से परखने का मजा ले सके । उपनिषदों में भी वर्णन है कि ब्रह्म ने ईक्षण किया और उसके संकल्प मात्र से सष्टि उत्पन्न हो गयी। सृष्टि का अर्थ ही है विविधता, अनेकता। बादरायण की मान्यता है, सृष्टि से पहले उसके असद् होने का अर्थ उसका प्रभाव नहीं है । अर्थात् स्थूल तत्त्व अथवा पिण्ड विशेष सूक्ष्मतम रूप में परिवर्तित होकर भी अपने व्यक्तिगत सत्त्व को सुरक्षित रखते हैं । उनके स्थूल रूप के अनस्तित्व को उनका प्रभाव न मान लिया जाय । परमाणुओं में परस्पर विभिन्नता है। सांख्य में अनगिनत नित्य पुरुषों अथवा जीवात्माओं का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। इस प्रकार एक पक्ष यह हुआ कि सूक्ष्मता की चरम स्थिति में भी तत्त्वों का वैविध्य सुरक्षित रहता है । दूसरा पक्ष यह कि वहाँ विविधता नहीं रहती; अन्त में बस एकता ही शेष बचती है । शायद सच यह है कि अन्तिम अवस्था में पहुंचकर अनेकता इतनी अचेत और तद्गत बन जाती है कि मानो असद् ही हो उठती है । ब्रह्म जैसे सागर है और उसके अन्तस्तल में लहरों की अनेकता नहीं है। सूक्ष्मतम विचार ( Idea ) से स्थूल पिण्ड तक अस्तित्व के विविध स्रोत ब्रह्म सागर में पर्यवसित, विलुप्त हो जाते हैं और ब्रह्म में सष्टि-संकल्प उत्पन्न होते ही फिर से प्रकट होने में देर नहीं लगाते । विराट् ब्रह्म में विलीन भौतिक तत्त्व, चेतन जीव और जड़ वस्तु जिस क्षरण अपनी विजित पृथक्ता को प्राप्त करते और परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया, घात-प्रतिघात का क्रम प्रारम्भ करते हैं, इसी क्षण से जैनेन्द्र तत्त्व, जीव, पिण्ड के व्यक्तिगत अहं की सत्ता स्वीकार करते हैं। प्रहन्ता और प्रात्मता मैं समझता हूँ 'अहं' अर्थात् 'मैं' केवल चेतन जीव तक सीमित नहीं है। जड़ भी अपना 'मैं' पन, अपनी अहन्ता, रखती है, यद्यपि उसे उसका बोध, उसकी अनुभूति नहीं है और उसमें अपने 'मैं' पन की दूसरे के 'मैं' पर आरोपित करने की इच्छा अथवा क्षमता भी नहीं होती। जड़ता पूरी तरह प्रवाह पर आश्रित होती है । प्रवाह को चुनौती वह नहीं दे सकती। चेतना वैसा कर सकती है। इसलिये जीव का 'अहं' व्यक्त, प्रखर और सक्रिय होता है, जब कि जड़ का 'ग्रह' अव्यक्त और निष्क्रिय । पर जड़ में भी ऊर्जा है और एक धातु में निहित ऊर्जा दूसरी धातू में निहित ऊर्जा से विविध है । यह विविधता जड़ के भी 'अहं' की स्थापना करती है । जीव की चेतना और जड़ की ऊर्जा में अन्तर है । एक में कामना है, दूसरे में नहीं। पर दोनों एक ही परम प्रेरणा से चालित हैं । तभी चेतना ऊर्जा का उपयोग करती है और ऊर्जा चेतना को जीवन दान देती है । अस्तु । असंख्य ग्रह, धरती, भूत, जीव, पर्वत, नदियाँ, वृक्ष, फल, फूल, अणु, परमाणु सब अपनी-अपनी अहन्ता रखते
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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