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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व शाश्वत है । स्थायित्व के खोजियों ने सूक्ष्मतम को ही ब्रह्म अथवा परमात्मा की संज्ञा दी और स्तरों को मानने से इनकार कर दिया । सूक्ष्मतम को छोड़ सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और स्थल सब उपेक्षणीय बन गये, क्योंकि उन्हें असल ब्रह्म की नश्वर नहीं, मात्र परिवर्तनीय है । प्रकृति स्थूल ब्रह्म है । आत्मा या परमात्मा को सूक्ष्मतम, परम, नित्य तत्त्व का पर्याय मान लिया गया । शरीर और प्रकृति प्रात्मा-परमात्मा से पृथक् दूर पड़ गये और उन्हें अब्रह्म की संज्ञा मिल गयी। यह बहुत कुछ म्रम के कारण ही हुआ । प्रमाण यह कि ब्रह्मवादी 'पुरुष' ने स्वयं को परम ब्रह्म का प्रतीक और 'स्त्री' को प्रकृति का प्रतीक घोषित किया । यह घोषणा हास्यास्पद और असत् है । तंत्तिरीयोपनिषद् में आत्मा शब्द शरीर से ब्रह्म तक के लिए प्रयुक्त हुना है । वहाँ प्राणमय आत्मा, मनोमय आत्मा, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय आत्मा का वर्णन है । भग के आख्यान में अन्न को ब्रह्म कहा गया है । इस प्रकार उपनिषदों में प्रात्मा नाम 'सत्' (अस्तित्व) की समग्रता को दिया गया है, मात्र गर्भस्थ सूक्ष्मतम को नहीं। 'आत्मिकता', 'प्रात्मीयता' आदि उक्तियाँ भी किसी सूक्ष्मतम के अर्थ में प्रयुक्त नहीं होतीं । उनका अर्थ परस्परता होता है और परस्परता एकांगी सूक्ष्म-स्तर पर नहीं, समग्र के नल पर ही सम्भव है। इस प्रकार ब्रह्म को विराट् समग्रता के रूप में देखना और मानना सभी दृष्टियों से सार्थक और उपयोगी है । गीता के विराट रूप दर्शन के माध्यम से शायद यही बात कही गयी है । हिन्दू-दर्शन में ब्रह्म का समग्र रूप स्वीकृत पर उपनिषद् काल के बाद उसका एकांगी आध्यात्मिक परमसूक्ष्म रूप मानस में प्रति ष्ठित हो गया। यह प्रतिष्ठा ही मायावाद का प्रेरणा-स्रोत बनी । प्रास्तिकता
___ उपनिषद् के ऋषियों से लेकर आधुनिक विचारकों तक कितनों ने ही ब्रह्म के उपयुक्त समग्र विराट रूप का समय-समय पर साक्षात्कार किया है । यही साक्षाकार जैनेन्द्र जी ने भी किया और उसी में से उन्हें वे उद्भावनाएँ मिलीं, जो बारबार छुप जाने वाले सूक्ष्म सत्य को उद्घाटित करती हैं । जैनेन्द्रजी ने इस भ्रम को विश्वास और उपासना का विषय मात्र न रहने देकर वैयक्तिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आचार-विचार के प्रेरक स्रोत के रूप में इसकी अत्यन्त वैज्ञानिक
और अकाट्य व्याख्या की है, जो उनकी सबसे बड़ी देन है । उपर्युक्त समग्र ब्रह्म में विश्वास ही उनकी आस्तिकता है और यही ग्रास्तिकता उनके दर्शन का पहला तत्त्व है। अहं का प्रारम्भ
फिश्ते ने ब्रह्म का वर्णन उस परम पुरुष के रूप में किया है, जो अपनी एकता से ऊबकर स्वयं को अनेकता में विभाजित कर लेता है, जिससे वह अपने ही एक अंश