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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
जाने-परमाने विना ही भौतिक शक्तियों से एकदम अलग और सृष्टि से बहुत दूर ऊँचे एक अदृश्य पर सर्वोच्च स्रष्टा, निरंकुश 'खुदा' को मान्यता दे दी गयी और स्रष्टा-सृष्टि का द्वेत स्थापित कर दिया गया । जीव सृष्टि का अंग बना, स्रष्टा का नहीं। यह ढत देवी-देवताओं के युग में उतना निर्दिष्ट और रूढ़ नहीं था। तब जैसे देवता और मानव परस्पर एक विचित्र भाषरण क्रीड़ा में संलग्न थे। समान श्रीड़ा का स्थान अब मानव की गुलामी ने ले लिया । मध्य-पश्चिम ( Middle-East ) के देश ईश्वर के सूक्ष्म, अदृश्य ब्रह्मरूप को, उसके उपर्युक्त 'खुदा' रूप से कभी भी पृथक् न कर पाये। इसीलिए वहाँ रहस्य-साधना यद्यपि प्रारम्भ से ही रही, पर उपनिषद् के ऋषियों की साधना जैसी स्वच्छता और स्पष्टता उसमें कभी न पा पायी । दोनों में अन्तर रहा और वही अन्तर 'खदा' और 'ब्रह्म' में है।
ब्रह्म
मानव का दूसरा चरण देवी-देवताओं के झाड़-झंखाड़ों को पार कर ब्रह्म की ओर बढ़ा । ऐसा भारत में ही हो सका, क्योंकि वैदिक देवता भौतिक शक्तियों एवं परिस्थितियों के अमूर्त प्रतीक ही रहे, मूर्त, रूढ़ और जड़ वे नहीं बन गये । ऋषियों का चिन्तन सहज रूप उस सूक्ष्मतम अदृश्य तत्त्व की ओर बढ़ सका, जो भौतिक शक्तियों की प्रेरणा है और सभी दृश्य पदार्थों में अदृश्य बनकर व्याप्त है। इसे उन्होंने सभी देवताओं से परम कहा और ब्रह्म नाम दिया । उपनिषदों का यह ब्रह्म व्यक्ति नहीं, बल्कि परम तत्त्व और चरम सत्य है । वही सारी वास्तविकता का स्रोत है । जगत् उसके हाथों में थमी वस्तु नहीं, बल्कि उसका अंग है । सृष्टि उससे बनी है । गायद ब्रह्म उस सर्व-व्यापक विराट् ऊर्जा, चेतना का नाम है, जिसमें क्रमशः सूक्ष्मतर कामना (Will) नीति (Luv) और विचार (Idea) अन्तर्गभित हैं । कोई जड़ पदार्थ सूक्ष्म ऊर्जा (Energy) शून्य नहीं । ऊर्जा से सूक्ष्म कामना, उससे सूक्ष्म नीति और उससे सूक्ष्म विचार है । और उससे भी सूक्ष्म शायद पीड़ा है। ये सभी तत्त्व ब्रह्म में परतों की तरह निहित और अणुओं की तरह मिश्रित हैं । शायद ऐसी ही कल्पना के आधार पर ब्रह्म को सत-चित्-ग्रानन्द रूप कहा गया । पर उसकी अदृश्य सूक्ष्मता और अकल्पनीय विराटता को दृष्टि में रखकर ही मिस्त्री रहस्यवादी इग्नेतन (१३७५. ८ ई० पू०) से लेकर प्रोपनिषदिक ब्रह्मवादी तक और मसीहीमुस्लिम सूफियों से लेकर आधुनिक रहस्यवादियों तक सभी ने उसे बुद्धि, मन और वचन से परे कहा । उपर्युक्त सभी तत्त्व प्रांशिक-अनुपातिक रूप में जीवन में निबद्ध हैं । उनका सर्वश्रेष्ठ अनुपात मानव में उपलब्ध है । 'अहं ब्रह्मास्मि' 'शिवोऽहं' 'अनलहक' आदि उक्तियाँ इन्हीं अर्थों में शायद सबसे अधिक सार्थक हैं ।