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________________ जैनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा १२३ साथ बहुत संस्कृत और परिष्कृत हो गया। वे उतने अादिम न रहे । दूसरे वे प्रारंभ से ही अमूर्त रहे, मूर्त नहीं । भारतीय कल्पना का रुख शुरू से ही मुक्ष्म की ओर बढ़ा । ग्रीक और भारतीय देवताओं का अन्तर भारतीय ‘इन्द्र' की उसके समकक्ष ग्रीक जियस' से तुलना करने पर स्पष्ट देखा जा सकता है । पर इन सभी आदिम देवी-देवताओं में कुछ समान तत्त्व स्पष्ट हैं । इन सभी में भौतिक दुर्द्धर्ष शक्ति का बोलबाला है । ये अमानवीय, अलौकिक कारनामे करने में सक्षम हैं । मानव की बुद्धि इन शक्तियों के स्थूल दृश्य रूप पर ही अटकी है । वह इनकी अनेकता में एकता खोजने और पाने में प्रवृत्त नहीं हो पायी है । अभी मानव स्थूल सूक्ष्म, दृश्य-अदृश्य, भौतिक-आत्मिक में स्पष्ट विभेद-विवेक नहीं रखता । वह भौतिक शक्तियों को अपनी अन्तर्वत्तियों के चश्मे से देखता और समझता है और अवचेतन भाव से दोनों का मिश्रण कर उपयुक्त देवी-देवताओं का निर्माण कर लिया है । यह ईश्वर की खोज में मानव का पहला कदम था। एकेश्वरवाद प्रारम्भ में ही यद्यपि मानव अस्तित्व की समग्रता को लेकर चला, पर उमकी गति संबुद्धि और भाव से ही प्रेरित रही, विभेदकरी प्रज्ञा की शक्ति उमे अभी उपलब्ध नहीं हो सकी थी। आगे इन देवताओं की निरंकुशता से तंग सामाजिकराजनीतिक-मनोवैज्ञानिक कारणों से विवश मानव को एक दिन अनुभूति हुई कि देवी-देवताओं की इन स्थूल भौतिक मूर्तियों और इनके विकट चरित्रों में असल सत्त्व और शक्ति का निवास नहीं हो सकता । शक्ति स्थूल तत्त्व नहीं है, वह मूक्ष्म है । वह सगुण नहीं निर्गुण है, दृश्य नहीं अदृश्य है । नित्य की घटित घटना मृत्यु ने भी किसी सूक्ष्म तत्त्व की ओर संकेत किया होगा। इस प्रकार धार्मिक रूढ़ियों के बीच एक नयी चीज ने जन्म लिया, जिसे आज की भाषा में रहस्यवाद कहा जा सकता है । सूक्ष्म और अदृश्य की ओर बढ़ते हुए मानस के चरण दो दिशाओं में बँट गये। प्रथम चरण ने अनगिनत देवी-देवताओं में एक को सर्वोच्च शक्तिशाली और देवाधिप घोषित किया । यूनानियों का जियस, यहूदियों का जहोवा, पार्यो का वरुण या इन्द्र ऐसे ही देवता थे । यह चरण सीधा एकेश्वरवाद-पैगम्बर वाद तक पहुँच गया । ईसाइयों-मुसलमानों का 'खुदा' यही पुगतन सर्वोच्च देवता है, जिस पर से मन्दिरमूर्ति और पूजा-अर्चनाओं का प्रावरण तो उतार लिया गया है, पर जिसकी सर्वशक्तिमान् निरंकुशता को सुरक्षित रख लिया गया है । यह खुदा उपास्य, ज्ञातव्य और विवेच्य नहीं है । यह बहुत ऊँचे सातवें आसमान पर रहता है । इस तक तो विनीत-भयभीत दुआएँ ही मान्य पैगम्बर के माध्यम से भेजी जा सकती है । एकेश्वर. वाद की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसमें दृश्यादृश्य, आत्मिक-भौतिक का विभेद
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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