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________________ १३२ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व । रता; मानव-मानव की परस्परता । यद्यपि मानव के लिये सबसे अधिक तात्कालिक महत्व की चीज मानव-मानव के बीच का सम्बन्ध ही है, पर पहले और दूसरे रूप से भी उसका कम सीधा रिश्ता नहीं है। वस्तुतः अहं की हर सक्रियता समस्या के उपर्युक्त तीनों रूपों से घनिष्ट होकर ही क्रियमाण हो सकती है । ब्रह्म-जीव पारस्पयं ब्रह्म का स्वरूप क्या है, यह पहले ही विचार का विषय बन चका है । अस्तित्व की समग्रता, पूर्णता का नाम ही ब्रह्म है; मानव की सीमित बुद्धि उसकी यही परिभाषा कर सकती है। सारे ग्रह, लोक उस समग्र, पूर्ण के तुच्छ अंश हैं । सब अपनी-अपनी सीमित कक्षाओं में घूमते हैं और एक-दूसरे के साथ अटूट आकर्षण और सम्बन्ध में बंधे हैं । सब एक-पर को प्रभावित करते हैं । क्षण-क्षरण इन ग्रहों का प्रलय और नूतन निर्माण हो रहा है । मानव-कल्पना के लिए अन्तरिक्ष में सधे इन विराट ग्रह-मण्डलों के और उनकी परस्परता के चित्र को प्रात्मगत करना असम्भव है, पर अनादिकाल से ये हमारी भाव-कल्पना, जिज्ञासा और खोज के विषय रहे हैं। अंतरिक्ष विज्ञान इसी खोज का परिणाम है । हमारी अपनी धरती पर जो नाना विस्फोट, ज्वार-भाटे और भौतिक परिवर्तन होते हैं, वे भी समग की प्रेरणा से निरपेक्ष नहीं. होते । वर्तमान विभिन्न ऋतुओं, धातुओं, वनस्पतियों, जीवों की यह विषमता-विविधता शेष समग्र में उपस्थित नानात्व से असम्बद्ध नहीं है । ब्रह्म और जीव के सम्बन्ध पर तो धर्म, दर्शन और विज्ञान सभी ने खुलकर विचार किया है। ज्योतिष और भाग्यवाद इसी विचारणा के अधकचरे फल हैं । असल में जो समग्र , भौतिक शक्तियों अन्तरिक्ष के ग्रहों, उनकी किरणों के रूप में प्राण-जगत् को प्रभावित करता है और इस प्रकार उसके भविष्य का निर्माण करता है, उसका सम्पूर्ण ज्ञान न मानव अाज तक प्राप्त कर सका है और न ही विज्ञान की सहायता से शायद वह कर सकेगा । जितना हम जान पाते हैं, उतना ही अगाध अंधेरा हमारे सामने लहरा उठता है। इसीलिए प्राणी के क्या, हर अस्तित्व के भाग्य को अज्ञेय कहा गया है और जैनेन्द्रजी अज्ञात के अज्ञेय बने रहने में ही आकर्षण और शुभता देखते हैं । शेष विराट में निहित सम्भावनाओं के व्यक्ति-अहं में प्रांशिक प्रवेश पा लेने पर ही महान प्रतिभाएं जन्म लेतीं और विकसित होती हैं । ऐसा तभी होता है, जब व्यक्ति अहं का द्वार अवरुद्ध नहीं, उन्मुक्त होता है । जैनेन्द्र जी प्रतिभाओं की उत्पत्ति का यही स्पष्टीकरण देते हैं । और जब अहं के दर-दीवार एकदम पारदर्शी, वायव्य बन जाते हैं, तब ऋषियों, पैगम्बरों और समर्पित भक्तों-प्रेमियों की सृष्टि होती है । सर्वग्रासी परस्परता की समुचित साधना के लिए इस ब्रह्म-जीव की परस्परता को जानना-मानना, उपलब्ध
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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