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जैनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा
१२१ चरम सत्य और स्थूल व्यवहार क्या इन दोनों को समान म्प से साधने की क्षमता हमारी वर्तमान सा यता रखती है ?- -यह प्रस्तुत प्रश्न है, जो आज दर्शन को वर्तमान वैज्ञानिक संस्कृति के सामने रखता है । जितनी शक्ति से दशंन इस प्रश्न को मानव समाज के सामने रख पायेगा, उतनी ही उसकी महत्ता और कृतार्थता सिद्ध होगी। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के कितने ही दार्शनिकों ने उपयुक्त प्रश्न को छेडा है और उस पर अपने-अपने ढंग से विचार किया है । भारत में स्वामी विवेकानंद ने पहली बार इस सभ्यता की गम्भीरता का अनुभव किया। उनकी प्रचण्ड वागी में अध्यात्म और भौतिकवाद मानों गल-पिघलकर एक बन गये । पर स्वामीजी के समय में विज्ञान का भय उतना उग्र नहीं बन पाया था, जितना वह अाज है । इस प्रश्न को सबसे अधिक ठोस और प्रखर रूप में महात्मा गाँधी ने रखा । पर उन्होंने ऐसा वाणी के माध्यम से नहीं, कर्म के माध्यम से किया, जिसके अर्थ उसके सत्त्व से मालूम पड़ता है, अाज बहुत दूर पड़ चले हैं । काव्य-शैली से कवीन्द्र रवीन्द्र ने और दार्शनिक विवेचन की पद्धति अपनाकर श्री अरविन्द ने उपयुक्त प्रश्न को ही ग्राज की मानवता के सामने उठाया । पर यह प्रश्न अभी भी मानव-जाति के अन्तगल में उतर नहीं पाया है। हम समन्वय या सन्तुलन का महत्त्व समझ नहीं पाते हैं । उसको अपने रक्त में घोलना हमें अवश्य मालूम पड़ता है । हमारी 'चरम सत्य' और 'स्थूल-व्यवहार' की समझ बारीक, सापेक्ष और व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि अधिकतर दार्शनिकों ने इनका विवेचन बौद्धिक स्तर पर किया है, श्रद्धा के स्तर पर नहीं। जैनेन्द्र-दर्शन
जैनेन्द्रजी सापेक्षतावादी चिन्तकों की परम्परा में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उन्होंने समन्वय के महाप्रश्न को उठाया है और उस पर केवल बौद्धिक रूप में नहीं, हार्दिक तल पर विचार किया है। उनका दर्शन इस युग के लिये अनिवार्य दूसरी श्रेणी का है। उनकी विचारणा श्रद्धात्मक सन्तुलन से सन्तुलित है । वह परस्पर विरोधी मान्यताओं से टकराती हुई नहीं, बल्कि उन्हें अपने में सहेजती-समेटती चलती हैं। विभिन्न तत्त्वों का उनका विश्लेषण मात्र परम्परागत अथवा अकादमीय न होकर मौलिक एवं अकाट्य हैं । उन्होंने अपनी विचारणा को विशुद्ध या यात्मिक अथवा मात्र भौतिक तल पर न टिकाकर ब्रह्म और अहं के उस मूल स्वरूप पर अाधारित किया है, जिसमें प्रात्मा और पिण्ड दोनों सहज समाविष्ट हैं, जहाँ उन दोनों में ग्रंथियाँ नहीं हैं और वे अद्वैत रूप में प्रकृत अकृत्रिम आचरण करते हैं । चार मल तरव
___ मैंने 'भारती' में प्रकाशित अपने लेख 'जनेन्द्र-दर्शन के मूल तत्त्व' में जैनेन्द्रदर्शन को चार मूल तत्त्वों पर आधारित किया था। ये हैं : (१) ब्रह्म अथवा