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________________ १२० जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व वर्गीकरण का नया प्राधार शायद दार्शनिक मत-विचारणा का मापदण्ड अब बदलना होगा । दार्शनिक मतों का वर्गीकरण प्रास्तिक-नास्तिक, प्राध्यात्मिक-भौतिक आधार पर किये जाने के बदले नितान्त-सापेक्ष (Exclusive-Inclusive) आधार पर किया जाना चाहिए । हर सत्य का मर्म सापेक्ष बनकर ही सुरक्षित रह सकता है । सैद्धान्तिक तल पर यह बात सर्वथा सत्य है कि कर्म बन्धन का और जगत् दुःख का मूल है । पर इस सत्य के विरोधी जैसे दीखनेवाले दूसरे सत्य, कि कर्म से ही मुक्ति मिल सकती है और जगत् चरम सुख का कारण भी बन सकता है--को क्या निराधार और झूठ मानना होगा ? यह चरम सत्य है कि शून्य ही तथ्य है । इन स्थूल पिण्डों को परमाणुओं क्या, परमतम अणुओं में टूटकर महाशून्य में लय हो जाना है। इसलिये यह जगत अस्थायी है, झूठा है, माया है । पर महाशून्य में से फिर नये पिण्ड बनेंगे और नये जगत् प्रकट होंगे, यह सत्य क्या माया सिद्धान्त से कम महत्त्वपूर्ण है ? महाशून्य मेंसूक्ष्मतम रूप में ही सही---सारे भूत, सारी भौतिकता नित्य वर्तमान रहती है, यह तय क्या उपेक्षणीय है ? मानव क्या केवल आत्मा या केवल शरीर को लेकर जी सकता है ? यह तथ्य है कि आत्मिकता और भौतिकता दोषों को साथ लिये बिना सत्यानुभूति और सत्य-साक्षात्कार असम्भव है । इसी बात को दृष्टि में रखकर मैंने एक अोर अध्यात्मवाद, शून्यवाद और मायावाद को और दूसरी ओर निरे वैज्ञानिक भौतिकवाद को एकदेशीय बताया है। उनके प्रति अश्रद्धा प्रकट करना मेरा उद्देश्य नहीं है । वेदान्तियों के 'अहं ब्रह्मास्मि' और भौतिकवादियों के 'व्यक्तिवाद-समाजवाद' में छपी अमोघ प्रेरणा निस्सार नहीं है । पर जिस स्तर पर मानव-मेधा पहुँच चकी है, वहाँ उनकी एकांगिता को समझ लेना भी तो बहुत आवश्यक है । एकांगी शून्यवादमायावाद ने भारत के वैयक्तिक-सामूहिक पुरुषार्थ को कितना क्षय किया और उसे बाह्य आक्रमणों के लिए उन्मुक्त कर दिया, इसका ऐतिहासिक अध्ययन उतना ही अनिवार्य है, जितना इस बात का कि बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध मात्र में दो प्रलयंकर विश्वयुद्ध मानव की किस हीनता के कारण सम्भव हो पाये । एकांगिता की दृष्टि से अध्यात्म-भौतिक दोनों दर्शनों को एक श्रेणी में रखना मुझे उपयोगी लगता है। और दुसरी श्रेणी में उन दर्शनों को रखा जाना चाहिए, जो इन दोनों को सापेक्ष मानकर चलते हैं। प्रस्तुत प्रश्न आज का वैज्ञानिक मानव यदि तत्काल ही उपयुक्त दूसरी श्रेणी के सापेक्षतावादी अर्थात् अध्यात्म-भौतिकवाद को परस्पर पूरक रूप में लेकर चलनेवाले एक नये सर्वांगीण दर्शन को न अपना सका, तो वर्तमान सभ्यता का विनाश निश्चित है।
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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