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जनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा
११६ नहीं है और उसे बौद्धिक-वैज्ञानिक प्रयास का विषय बनाया जा सकता है । देवीदेवताओं और पर-ह्म के उपनिषद-काल तक के भौतिक-वैज्ञानिक स्वरूप और आगे उनके अर्चनात्मक, सांस्कृतिक एवं पौराणिक स्वरूप का विकास भारत की बहुऋषिप्रथा के कारण ही संभव हो सका । देवताओं की बहुसंख्या और दर्शन, ज्ञानविज्ञान की अनन्त शाखाएं, जिनका विकास भारत में हुआ, भारतीय परम्परा में वर्तमान मुक्त विचारणा और मुक्त प्रयास की प्रमाण हैं। दर्शन का दिशा-परिवर्तन
पर वैदिक औपनिषदिक काल की सर्वग्रासी उच्छलित जिज्ञासा आगे बढ़कर तथाकथित अध्यात्म में ही निबद्ध क्यों हो गयी और उसने जगत्, शरीर और भौतिकता के प्रति पूर्ण निषेध का रुख क्यों अपना लिया, यह भारतीय धर्म, दर्शन और इतिहास की सबसे बड़ी समस्या है । भारतीय मानस ने किस दिन और किस प्रेरणा के वश होकर जगन्माया, जगन्मिश्या की ओर पहला कदम बढ़ाया, यह अज्ञात है । पर वैदिक, औपनिषदिक दर्शन विचारणा से एकदम विपरीत कर्म, शरीर और जगत् को दुःख का मूल माननेवाली वेगवती बौद्ध-जैन धारा मात्र प्रतिक्रिया नहीं है, प्राकस्मिक नहीं है । उसका मूल कहीं सुदूर अतीत में है, इससे इनकार नहीं होना चाहिए। कुछ भी हुआ हो, वैदिक स्वीकारात्मक उल्लासवाद-कर्मवाद में और नकारात्मक दुःखवाद-मिथ्यावाद में एक स्पष्ट अन्तर्विरोध है । इस दुःख वाद-मिथ्यावाद के प्रभाव ने भारतीय-दर्शन के सर्वग्राही उन्मुक्त प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया और उसको तथाकथित अध्यात्म के घेरे में घूमनेवाला कोल्हू का बैल बना दिया। उपनिषद्-काल के बाद भारतीय दर्शन में अध्यात्म, आत्मा, ब्रह्म आदि उक्तियों का अर्थ ही बदलकर शरीर, प्रकृति और जगत् का पूर्ण निषेध हो गया । यह निषेधात्मक दुःखवाद पूरे पूर्व एशिया में व्याप्त हुआ और यूनानी दर्शन की सोफिस्ट शाखा, ईसाइयत और इस्लाम के सूफियों पर उसका प्रभाव पड़ा । वेदान्त का परवर्ती रूप (शांकर अहंत) दुःखवाद-निषेधवाद का ही वंदिक संस्करण है। इस दुःखवाद-निषेधवाद के प्रवेश को भारतीय क्या, विश्वभर के धर्म-दर्शन में एक ग्रन्थि (काम्लेक्स) का प्रवेश मानना होगा। यह धर्म-दर्शन की एकदेशीयता का सबसे बड़ा कारण बना । मुझे लगता है, बौद्ध-जैन धारा में कुछ पैगम्बरवादी तत्त्व भी निहित रहे, जो परवर्ती पौराणिक धर्म में भी प्रवि' ट और विकसित हुए । इन्होंने भी दर्शन के विकास को कुण्टित किया और अन्धश्रद्धात्मक एकांगी मान्यताओं को रूढ़ बनाया। धर्म-दर्शन की एकदेशीयता ही अाज के भौतिक विज्ञान की चरम-एकांगिता की प्रेरक बनी, यह ऊपर कहा जा चुका है।