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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व से मानव-जीवन और भविष्य को प्रभावित करती रही हैं और करती रहेंगी। पर यह मानना होगा कि दार्शनिकों के समाधान कितने भी अन्तिम क्यों न सिद्ध हों, वे विश्वास और अन्ध-विश्वास पर आधारित और उनके पोषक रहे, वैज्ञानिक प्रयोगसिद्ध स्थापनाओं का रूप उन्हें कभी नहीं दिया जा सका। और कभी वैज्ञानिक विवेचन-विश्लेषण से पुष्ट नहीं किये गये । यह आश्चर्य का ही विषय है कि विराट् भारतीय-दर्शन की विशुद्ध न्याय-पद्धति में प्रयोग-प्रमाण की गणना नहीं है। गणित, भौतिकी रसायन, शिल्प, यान्त्रिकी, नक्षत्र-विज्ञान, समाज-शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि का पर्याप्त विकास भारत में हुआ है, पर इसका उपयोग उपयुक्त महाप्रश्नों के हल में नहीं किया गया । वे मानव-अस्तित्व की रक्षा और विकास में नियुक्त हुए, देवताओं की चर्चा-उपासना में भी उनका उपभोग हुमा; पर मानवजिज्ञासा के क्षेत्र से उन्हें कोसों दूर ही रखा गया । शाश्वत जिज्ञासाओं की तप्ति को अनुमान और कल्पना पर छोड़ दिया गया। इस प्रकार दर्शन बौद्धिक विलास और तर्क-वितण्डा का क्षेत्र बन गया और मानव-अस्तित्व की भौतिक समस्याओं से उसका सम्बन्ध एकदम टूट गया। दर्शन का संकुचन हो गया और ठोस धरती उसके पैरों के नीचे से निकल गयी । वह 'रहस्य' और 'शून्य' डूब गया और भौतिक अस्तित्व सूक्ष्म मानसिकता से दूर पड़कर स्वार्थ और हिंसा की घोरता को अपनी प्रेरणा बनाने के लिए बाध्य हो गया। धर्म की जिम्मेदारी
दर्शन के इस एकांगीय, अपूर्ण एवं अवैज्ञानिक प्राचरण के लिए धर्म-पन्थ बहुत दूर तक जिम्मेदार है। धर्म का प्रेरणा-स्रोत क्या है, धर्म क्या है ? भय अथवा श्रद्धा के वशीभूत होकर सीमित स्व को शेष विराट् में लय करने और विराट को सीमानों में बाँधने की आकुलता से प्रेरित मानव ने जिन विश्वास मान्यताओं विधिविधानों, पूजा-अर्चनाओं और कर्मकाण्डों की उद्भावनाएं कीं, वे ही सब धर्म हैं । अधिकतर ऐसा हुआ कि ऋषियों-पैगम्बरों ने अपने साक्षात्कार को सामाजिक-राजनीतिक साँचे में ढालकर विशेष धर्म का आकार दे डाला और सम्बद्ध दार्शनिकों ने अपनी जिज्ञासा को उस रूढ़ रूपरेखा को लाँघकर असीम में उड़ने देने का साहस नहीं किया । धर्म ने शुद्ध जिज्ञामा को निषिद्ध ठहरा दिया और मिश्रित सीमित जिज्ञासा को भी अधश्रद्धा का दास बने रहने की शर्त पर ही जीने की इजाजत दी। भारत में, विशेषकर उपनिषद्-काल तक, फिर भी यह गनीमत हुई कि धार्मिक साक्षात्कार एक अकेले पैगम्बर की देन न रहकर अनेक ऋपियों के योगदान से सम्पन्न हुआ। उपनिषद्-काल तक भारत में सीमित जिज्ञासा और प्रयास को काफी खुला अवसर मिला। पर शीव्र ही औपनिषदिक उपलब्धियाँ रूढ़ बन गयीं। बहुत कुछ पैगम्बरीय