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________________ वोरेन्द्र कुमार गुप्त जैनेन्द्र की दार्शनिक विचारणा दर्शन की एकांगिता दर्शन का विषय-विस्तार कहाँ से कहाँ तक है, यह विवादास्पद है । पर यदि दर्शन शब्द का अर्थ सत्य-साक्षात्कार किया जाय, तो ज्ञान-विज्ञान के सभी विभाग दर्शन की शाखा-प्रशाखा बन जाते हैं । प्रकटतः धर्म-साहित्य, कला-शिल्प, इतिहास अर्थशास्त्र, राजनीति-समाजनीति, रसायन एवं भौतिकशास्त्र, ये सभी विषय दर्शन को समृद्ध और परिपुष्ट करते दीख पड़ते हैं । इन सबके चरम-तथ्य ( Ultimate truth ) दर्शन के अवयव हैं, जो मिलकर विराट् सत्य को अन्वित और प्रमाणित करते हैं। पर दर्शन अपने इस अश्वत्थ रूप में पहले मान्य न हो सका । क्यों ऐसा हुआ, यह अध्ययन का विषय है। मानव-अस्तित्व को दो मोटे भागों में बाँटकर देखा जाता है, मानसिक और भौतिक । यह दोनों विभाग निरन्तर एकदूसरे की पूर्ति और पुष्टि करते चलते हैं। दोनों के ऐक्य, सह-अस्तित्व एवं सह-गमन से ही मानव के व्यक्तित्व में परायणता, कर्मण्यता एवं कृतार्थता पा सकती है । पर लगभग शत-प्रतिशत प्राचीन दार्शनिकों ने इन मनोनीत विभागों के बीच खिची बौद्धिक लकीर को पत्थर की लकीर ही नहीं बना डाला, बल्कि इस कृत्रिम द्वैत को अधिकाधिक पक्का किया । उन्होंने एक फल के दोनों टुकड़ों का रस सम्मिलित निचोड़ने के बदले एक खण्ड को ग्राह्य और दूसरे को अग्राह्य घोषित कर दिया। उन्होंने सूक्ष्म मानसिकता को इतना प्रात्यन्तिक महत्त्व दिया कि स्थूल शारीरिकता और भौतिकता अस्पृश्य बन गयी और वे प्रथम को सत् (है) और दूसरे को असत (नहीं है) कहने पर बाध्य हो गये । इस प्रकार दर्शन अस्तित्व के मानसिक-बौद्धिक अध्ययन तक सीमित हो गया। इस भौतिक-वैज्ञानिक पक्ष की तिलांजलि का परिणाम यह हुआ कि दार्शनिकों के पास सत्य-साक्षात्कार का साधन रह गया, बस यौगिक सम्बुद्धि अथवा इलहाम । वे फिर इस तरह उपलब्ध मत को शब्दप्रमाण, तर्क-वितर्क वितण्डा द्वारा सिद्ध और पुनस्सिद्ध करने में जुट गये। सभी दार्शनिकों ने अध्ययन के लिये जिन विषयों को चुना, वे रहे-सृष्टि, ईश्वर, आत्मा, मन, बुद्धि, कर्म, जन्म-पुर्नजन्म, मुक्ति, विलय आदि । ये मौलिक महाप्रश्न हैं । और एतत्-सम्बन्धी मानवीय विश्वास और मान्यताएँ आदिकाल ( ११५ )
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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