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________________ जैनेन्द्र को दार्शनिक विचारणा ११७ विशेषतायों से युक्त बौद्ध-धर्म के विरोध में वैदिक-औपनिषदिक उपलब्धियों को छावनी बनना पड़ा, और स्पष्ट है कि आगे के भारतीय दार्शनिक वैदिक एवं बौद्ध, इन दो वत्तों में चक्कर काटते रहे । अस्तित्व-रक्षा एवं विस्तार के तल पर धर्म-दर्शन, श्रद्धाजिज्ञासा, भावना-बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान, कला-शिल्प का सम्मिश्रण करके एक ठोस समाज पद्धति, व्यवहार-पद्धति और आर्थिक समृद्धि का विकास हमने भले ही कर लिया हो; पर शुद्ध ज्ञान के स्तर पर श्रद्धा और जिज्ञासा, कल्पना और प्रयोग, आत्मिक और भौतिक को हमने परस्पर घुलने-मिलने नहीं दिया, उनके द्वैत को स्थिर रखा । सामी, अरबी, यहूदी और ईसाई देशों में क्योंकि पैगम्बरवाद का बोलबाला रहा, इसलिए वहाँ के दार्शनिक तो विश्वास और तर्क की नोक-झोंक में ही उलझे रहे । अपनी मौलिक उपपत्तियों के नाम पर उन्होंने अफलातून और अरस्तू का अनुवाद भर किया । यूनान का यह सौभाग्य ही मानना चाहिये कि वहाँ शुद्ध बौद्धिक जिज्ञासा की सुकरात, अफलातून और अरस्तू आदि ने प्रारण-प्रतिष्ठा की । शाश्वत प्रश्नों में उलझे रहना वहाँ के सामान्य नागरिकों का शौक बन गया था। यूनान का प्राचीन धर्म शायद अधिकाँश भय पर आधारित था और वह यूनानी मेधा को बांधे रखने में अक्षम सिद्ध हुा । यूनानी दार्शनिकों ने अपना कार्यक्षेत्र मानसिकता तक सीमित न रहने दिया । वे एक साथ समाजशास्त्री, वैज्ञानिक और कलाविद भी बने । उन्होंने ज्ञान-विज्ञान की विविध धारागों की उद्भावनाए" की । अरस्तू ने प्रायोगिक विज्ञान को बहुत महत्त्व दिया। उसने और अन्य यूनानी दार्शनिकों ने वैज्ञानिक प्रयोगों को शाश्वत समस्याओं के हल में नियोजित किया। मध्योत्तरकालीन रिनेसाँ के समय के यूरोपीय वैज्ञानिकों ने इन यूनानी दार्शनिकों की परम्परा को ही अांशिक रूप में पुनरुज्जीवित किया। आंशिक रूप में इसलिए कहता हूँ, क्योंकि यूरोपीय विज्ञान विराट् के, आत्मिकता के और मानसिकता के सन्दर्भ की अपेक्षा कर सांसारिक प्रयोजन के तल पर चला और बढ़ा । ऐसा धर्म और दर्शन के रहस्यवाद और रूढ़िवाद की प्रतिक्रिया में हो पाया । यदि प्रारम्भ से ही धर्म-दर्शन भौतिकता को असत्य न बताकर उसे समान रूप से साथ लेकर चलते, तो शायद विज्ञान इतना एकांगी और विद्रोही न बन पाता। पैगम्बरवाद और दार्शनिक चिन्तन एकेश्वर-एकपैगम्बर-वाद और बहुदेव-बहुऋषि-वाद के बीच प्रभाव व परिणाम की दृष्टि से क्या अन्तर रहा है, इसका अध्ययन बहुत आवश्यक है। एकेश्वरवाद का खुदा जगत् और सृष्टि से बहुत दूर, और ऊपर, उससे एकदम पृथक एक-स्रष्टा नियामक बादशाह का-सा अस्तित्व रखता है। वह सर्वोच्च सर्वशक्तिमान् पुरुष है और प्रकृति उसका खिलौना है । अरूप, निराकार कहे जाते हुये भी उसका व्यक्तीकृत और देवीकृत (Personified and dcified) रूप हर मौतकिद के अन्तर
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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