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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व (मा) समास शैली, धारा शैली तथा विक्षेप शैली
निबंध के कला-पक्ष की चर्चा करते समय व्यास शैली के अतिरिक्त उपयुक्त शैलियों का भी मुख्य रूप में उल्लेख किया जाता है । जैनेन्द्र जी के निबन्धों में इनका प्रयोग लगभग नगण्य रूप में हुआ है । विचारात्मक निबन्धों में समास शैली (समास, सन्धि, उपसर्ग, प्रत्यय, प्रतीक आदि के द्वारा विषय के सूत्रबद्ध कथन) के प्रयोग की अधिक सम्भावनाएं रहती हैं, किन्तु जैनेन्द्र जी ने अधिकतर इसी कोटि के निबन्ध लिखने पर भी उनमें समास शैली को आश्रय नहीं दिया। हाँ, उन्होंने कहीं-कहीं व्यास शैली और समास शैली को समन्वित रूप में प्रस्तुत अवश्य किया है । यथा-'नीति साधन है, राज साध्य है । पहले नीति साध्य थी, राज साधन । उस प्रकार की तत्त्वचिन्ता और आदर्शोपासना से चलने वाली साम्यवादी राजनीति जैसे अयावहारिक होकर पिछड़ गई है । अब कर्मप्रवृत्त और निश्चित तात्कालिक लक्ष्य रख कर चलने वाली कूटनीतिक साम्यवादी राजनीति ने उसका स्थान ले लिया है। प्रस्तुत उद्धरण में सूत्र शैली का प्रयोग होने पर भी जटिलता नहीं है । जैनेन्द्र जी गम्भीर-से-गम्भीर विषय को भी सहज अभिव्यक्ति प्रदान करने में दक्ष हैं । कथा शैली और उदाहरण शेली के आश्रय के अतिरिक्त उन्होंने उसके लिये प्रकृति के भावात्मक सौन्दर्य का भी प्रसंगवश चित्रण किया है । उदाहरणार्थ 'दर्शन और उपलब्धि' शीर्षक निबन्ध की ये पंक्तियां देखिए- "पहाड़ों का अंत न था और उनकी शोभा का पार न था। धप उन पर खेल कर भाँति-भांति के रंग उपजाती और छाया बादल के साथ अाँख-मिचौनी रच कर विचित्र दृश्य उपस्थित करती। ..२ इस उक्ति में तन्मयता, भावात्मकता अथवा सरस भावुकता के फलस्वरूप धारा शैली की सहज स्थिति रही है । आत्मलीनता के ऐसे क्षणों में जैनेन्द्र जी ने कहीं-कहीं अपने भावों को विक्षेप शैली अथवा प्रलाप शैली में भी व्यक्त किया है। इस दृष्टि से 'मेंढ़क' शीर्षक निबन्ध की निम्नस्थ पंक्तियां द्रष्टव्य हैं-'प्रोदमी मेंढक नहीं होते । लेकिन बनाए, और बनने दिए जा सकते हैं। सिर के ऊपर से गरुड़ की तरह से जो लोग झपटते हुए इधर-से उधर उड़ा करते हैं, ऐसे पुरुषों के भोज्य के लिए जरूरी है कि कुछ अंधे कुएं हों, जहाँ कोई जमा करे और प्रादमी मेंढ़क हुआ करें। (इ) अन्य शैलियां
उपर्युक्त अभिव्यंजना-रीतियों के अतिरिक्त जैनेन्द्र जी ने अपने निबन्धों में
१. सोव-विचार, पृ० २८७ २, सोच-विचार, पृ० २३४ । ३. सोच-विचार, पृ० १६१ ।