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जैनेन्द्र जी की निबन्ध-शैली
१११ अभिव्यंजना को सुख-सरल रखने के उद्देश्य से जेनेन्द्र जी ने कतिपय गौण शैलियों को व्यास शैली के अंगभूत रखा है। इस दृष्टि से उन्होंने सबसे अधिक प्राश्रय कया-शैली का लिया है अर्थात् निबन्ध के प्रारम्भ, मध्य अथवा अन्त में उन्होंने अपने अनुभव-युक्त में आई हुई घटना-विशेष का प्रायः कथात्मक आख्यान किया है। इससे विषय-प्रतिपादन में रोचकता के अतिरिक्त प्रामाणिकता भी पा गई है । दीर्घ कथासूत्र प्रस्तुत करने के अतिरिक्त उन्होंने भाव-विशेष पर बल देने के लिए संस्कृत और हिन्दी की प्रसंगानुकूल उक्तियों को उद्धृत कर उदाहरण शैली का भी आश्रय लिया है यथा--(क) सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज,२ (ख) कौड़ी को तो खब संभाला, लाल रतन को छोड़ दिया ।
___जनेन्द्र जी ने शैली को प्रसाद-पल्लवित रखने के लिये संवाद-योजना का भी अाधार लिया है । स्पष्ट है कि इन संवादों की योजना कथा-शैली के अन्तर्गत हुई है। इस दृष्टि से 'आप क्या करते हैं,' 'राम-कथा' तथा 'उपयोगिता' शीर्षक निबन्ध विशेषतः उल्लेखनीय हैं। उन्होंने संवादों में संक्षिप्तता, सरलता तथा भावुकता को विशेष स्थान दिया है। इन संवादों की विशेष उपयोगिता यह रही कि उनमें रचनागत जटिलता में कमी आने की पर्याप्त संभावना रही है । जैनेन्द्र जी ने प्रायः सामाजिक-दार्शनिक गुत्थियों को लेकर निबन्ध-रचना की है, अतः संवादगत सहजता ने उनके निबधों में अनिवार्य रोचकता ला दी है । इस सन्दर्भ में उन्होंने प्रश्नोत्तर शैली का भी प्रयोग किया है । यथा-"हम किधर चलें ? --मुक्ति की ओर । मुक्ति कहाँ है-- ईश्वर में । ईश्वर क्या है ? —ऐक्य । इस उद्धरण की विशेषता यह है कि यहाँ लेखक ने संक्षिप्त उक्तियों के माध्यम से पाठक को विचार-सजगता प्रदान की है। 'परम सांख्य' शीर्षक निबन्ध में विचारगत गम्भीरता को सहज धरातल पर लाने के लिये उन्होंने प्रथम अनुच्छेद से ही प्रश्नोत्तर शैली को स्थान दिया है । कहीं-कहीं इन प्रश्नों के अतिरेक ने विचार-बोझिलता को भी जन्म दिया है। प्रश्नों का नैरंतर्य और समाधान का
आनुपातिक प्रभाव ऐसे स्थलों की दुरूहता अथवा तज्जन्य अरुचि के लिए उत्तरदायी हैं । उनके निबंधों में इस प्रकार के स्थल अधिक नहीं है, अतः इस शैली के विशिष्ट प्रयोग को जनेन्द्र जी के अभिव्यंजना कौशल का अंग माना जाना चाहिये।
१. देखिये (अ) सोच-विचा , पृ० ६४-६८, १२२, (आ) मन्थन, पृ० २६-३१, १४८ २. मन्थन, पृ० १०२ ३. सोच-विचार, पृ० १३८ ४. देखिए (अ) सोच-विचार, पृ० ४-१४, २६-३१, (आ) मन्थन, पृ० ३१ ५. मन्थन, पृ० १४५ ६. देखिए 'मन्थन', पृ० २३१ ७ देखिये 'मन्थन,' पृ० १६५, क्रान्ति-विषयक चर्चा