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________________ जैनेन्द्र जी को निबन्ध-शैली में 'पूर्ण पुनरुक्त शब्द' कहते हैं । शाब्दिक सहभाव के अन्तर्गत द्वितीय विचारणीय तत्त्व हैं-लेखक द्वारा वाक्यों में प्रान्तरिक तुक का निर्वाह । यद्यपि यह विशेषता मूलतः कविता की निधि है, किन्तु जैनेन्द्र जी ने गद्य में भी इसका सफल निर्वाह किया है । उदाहरणार्थ निम्नांकित वाक्य देखिए (क) “संदीप का गर्व खर्च होता है।' (ख) “काम के अभाव में मैं तब हराम में और पाराम में रहता था ।"२ (इ) महावरे-लोकोक्तियाँ __ जैनेन्द्र जी ने अपने निबन्धों में मुहावरों तथा लोकोवितयों का प्रचर प्रयोग किया है। कारण स्पष्ट है-उनके द्वारा अपनाये गये विषय तो जन-जीवन से संबद्ध हैं ही, उन्होंने भाषा को भी व्यावहारिक स्तर पर रखा है। वस्तुतः मुहावरों अथवा लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा में लाक्षणिकता और विशिष्ट अर्थवहन की क्षमता आ जाती है । आलोच्य लेखक ने 'सिली सीवन उधेड़ना', '३६ के अंक', 'ठठे की बात' आदि मुहावरों का प्रसंगानुकूल प्रयोग किया है । इसी प्रकार उन्होंने "उन्हें गंगा के पास गंगादास और जमना किनारे जमनादास हो जाना सरल है । जैसे वाक्यों में लोकोक्तियों को भी स्थान दिया है । हिन्दी-लोकोक्तियों के अतिरिक्त उन्होंने अपने मन्तव्य की पुष्टि के लिये अंग्रेजी की प्रसिद्ध लोकोक्तियों को भी उदाहृत किया है। यथा 1. Knowing is becoming.b 2. God is Iaw.6 3. Truth is Stranger than fiction.? (ई) वर्तनी-विपर्यास जैनेन्द्र जी ने अपने निवन्धों में स्वच्छ और शुद्ध भाषा का प्रयोग किया है, वर्तनी-व्यतिक्रम अथवा अशुद्धियां केवल अपवाद हैं। उनकी रचनाओं में शाब्दिक अशुद्धियों की खोज अनधिकार चेष्टा-मात्र है, तथापि प्रस्तुत निबन्ध में सर्वांगीणता लाने के लिये हम इस पर भी विचार करेंगे । उन्होंने 'शृंखला' जैसे अशुद्ध प्रयोग प्रायः नहीं किये हैं। इसी प्रकार हलन्त शब्दों के प्रयोग के प्रति भी वे जागरूक रहे १-२. साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृ० ५१६, ३२६-३२७ ।। ३. (आ) साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ १६२, (आ) मन्थन, पृ. २०४, (इ) सोच-विचार, पृष्ठ ५६ ४. साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ २२६ ५-६-७. साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ ३१,४७,११७ ८. देखिये 'साहत्य का श्रेय और प्रेय', पृष्ठ ३६१
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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