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जैनेन्द्र जी को निबन्ध-शैली
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किया जाना चाहिये । प्रस्तुत निबन्ध में हम भाषा के अन्तर्गत निबन्धगत शब्द- सम्पदा ( प्रयुक्त शब्दावली की विविधरूपता), शब्दगत सहभाव ( सहयोगी गन्दों का प्रयोग तथा वाक्यों में अन्तर्लय की योजना ), मुहावरे लोकोक्तियों तथा वर्तनी - विषयक विपर्यास की समीक्षा करेंगे । वर्णन व्यवस्था अथवा शैली को दो वर्गों में विभाजित करना उपयोगी होगा । एक वर्ग में व्यास शैली, समास शैली, धारा शैली, तथा प्रलाप शैली का समावेश किया जा सकता है तथा दूसरे वर्ग में सूचित शैली, अलंकार शैली, चित्र शैली तथा व्यंग्य शैली का समावेश हो सकता है । इनमें से व्यास शैली के अन्तर्गत कथा शैली, उदाहरण शैली, संवाद शैली तथा प्रश्नोत्तर शैली का समन्वित रूप में अध्ययन किया जा सकता है ।
जैनेन्द्र जी की भाषा
(श्र) शब्द- सम्पदा
जैनेन्द्र जी ने अपने निबन्धों में शब्द-समृद्धि अथवा शब्द चयन के व्यापक आधार पर विशेष बल दिया है । भाषा की व्यावहारिकता अथवा ग्रभिव्यक्ति की सुकरता उनकी शैली की ग्रात्मा है । फलतः उन्होंने संस्कृत-पदावली के प्रयोग के प्रसंग में भी अधिकतर उन्हीं शब्दों को अपनाया है, जो हिन्दी में सहज व्यवहृत हैं । अभिनय, अनुकरण, विग्रह, नगण्य, द्वन्द्व आदि शब्द' इसी प्रकार के हैं । तद्भव शब्द तो उनके निबन्धों में प्रचुर रूप में मिलते ही हैं, उन्होंने भाषा में सहजता लाने के लिये तरतमता ( तारतम्य ), जस (यश), मूरत (मूर्ति), पच्छिम (पश्चिम). मजूरी, सिरजन (सृजन), गिरस्ती ( गृहस्थी ) आदि लोकव्यवहारगत शब्द रूपों को भी पर्याप्त स्थान दिया है । इसी प्रकार उन्होंने यत्र-तत्र 'चहुँ' जैसे ब्रजभाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है। भाषा को व्यावहारानुकूल बनाने के लिये उन्होंने उर्दू शब्द-कोष को भी अनन्य निष्ठा से अपनाया है । नामुनासिव ग्रहसान, इन्सान, खत्म आदि शब्द इसी प्रकार के हैं । शब्द-योजना में रोज़मर्रा अथवा बोलचाल की प्रवृत्ति लाने के लिये इस प्रकार के प्रयोग सर्वथा वांछनीय हैं, किन्तु 'शीघ्रता' के लिये 'न'देर' लिखने का समर्थन नहीं किया जा सकता ।" इसी प्रकार "कतन तत्त्व की
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१. देखिए 'साहित्य का श्रेय और प्र ेय', पृष्ठ १३६, १३७, १६१, ३६३, ३ |
२ देखिए ( अ ) मन्थन, पृष्ठ ११४, १४७, २०५३ () साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ २४४. २७५, २८४, ३६५ |
३. देखिए 'साहित्य का श्रेय और प्रेय', पृष्ठ १५४ ।
४. देखिए (अ) मन्थन, पृष्ठ ३१, (प्रा) सोच-विचार, पृष्ठ ८०, ८१, (इ) साहित्य का श्रेय
और प्रय, पृष्ठ ३३१ |
५. देखिए 'मन्थन', पृष्ठ ६६ ।