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________________ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व ग्रादिन्धिों में उन्होंने साहित्य की विविध समस्याओं के विषय में भी विचारनिरूपण किया है । इसी प्रकार से एक लेख 'गद्य-विकास और कथा उपन्यास' में उन्होंने प्रसंगवश गद्य की शैली के विषय में विचार व्यक्त किये हैं, जिन्हें उनकी निबन्ध-शैली के लिये कसौटी के रूप में ग्रहण किया जा सकता है । इस दृष्टि से निम्नलिखित उक्तियाँ पठनीय हैं--- (अ) "साहित्य की भाषा कभी सीधे नहीं, सदा व्यंजना द्वारा ही अपना अभिप्रायः देती है । यों भी कह सकते हैं कि वहाँ भाषा कह कर इतना नहीं कहती, जितना अनकहा छोड़कर कहती है । .. (आ) "बहुत ज्यादा जानकारियों और खबरों से लद कर या प्रात्यन्तिक निश्चिति पहन कर, भाषा लहरीली कैसे रहेगी ?"२ (इ) "जैनेन्द्र की गद्य की अशुद्धियों को स्वयं जैनेन्द्र की अशुद्धि मान कर उसे समाज-बहिष्कृत रखा जा सकता है, पर उसके गद्य का क्या कीजियेगा ? यदि जैनेन्द्र स्वयं शुद्ध नहीं है, और अशुद्ध होकर भी हिन्दी लिखने या बोलने के सम्बन्ध में काननन उस पर कोई रोक-थाम नहीं डाली जा सकती है, तो सिवा इसके क्या उपाय है कि हिन्दी गद्य का विकास ऐसी अशुद्धियों को भी पेट में लेकर और रक्त में रमा कर बढ़ता ही चले ।'३ शैली के विषय में जैनेन्द्र जी का विचार-वृत्त केवल इतना ही नहीं है, किन्तु उसके अाधार पर उनकी मान्यताओं का साधारण अनुमान अवश्य किया जा सकता है। उपर्युक्त उद्धरणों में उन्होंने तीन बातों पर बल दिया है.-(अ) व्यंजना-वृत्ति शैली का प्राण है. (प्रा) अर्थ-गाम्भीर्य की बोझिलता के स्थान पर भाषा में निजी स्वास्थ्य होना चाहिये, (इ) भाव-प्रेषण में सहज व्यावहारिकता लाने के लिये भाषागत शुद्धियों अथवा व्याकरणिक नियमों का बलिदान कर देना चाहिये । स्पष्ट है कि इनमें से प्रथम दो धारणाओं का ही अनुमोदन किया जा सकता है, तृतीय मत में ऐसी उच्छृखल क्रान्ति की गन्ध है जो कला-सौष्ठव के लिये विघटनकारिणी सिद्ध . होगी। शैलीगत विचारणीय अंग साहित्य की संवृद्धि में रचना-विशेष के अान्तरिक गुणों अथवा भाव-पक्ष का तो विशिष्ट योग रहता ही है, शैली अथवा कला-पक्ष की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। निबन्ध-शैली के अन्तर्गत लेखक की भाषा और वर्णन-प्रणाली पर विचार १. साहित्य का श्रेय और प्रेयः द्वितीय सं० पृष्ठ १४५ २. साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ १४६ ३. साहित्य का श्रेय और प्रेय, पृष्ठ १४६
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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