________________
जैनेन्द्र जी के कथा-साहित्य में नारी भावना
१०३
" निश्चय है कि नारी के हृदय का सूत्र सीधा ही है उसकी नाना भंगिमा और व्यंजना के नीचे कहीं विशेष जटिलता नहीं है । लेकिन वह सूत्र हाथ कब प्राता है ? इससे पुरुष के भाग्य की तरह स्त्री के चरित्र को अतर्क्स मान लिया जाता है । तर्क उसमें है, पर स्त्री का सतीत्व इसी से तर्क-हीन सा लगता है ।"
[जैनेन्द्रजी ने नारी को प्रेम का प्रतीक माना है । उसके प्रेम में अगाध शक्ति है और वह अपने प्रेम से पुरुष को बाँध लेती है । उसका प्रेम पवित्र होता है और इसे जैनेन्द्र जी ने कहीं भी विकृत नहीं होने दिया । उसे सीमात्रों से बाँधे रखा है । उनकी लघुकथाओं में 'प्रमिला' की नायिका कुछ नया कदम उठाने की चाह रखने पर भी कुछ नया कदम नही उठा पाती, उसे जल्दी ही अपनी सीमा का बोध हो जाता है ।
प्रश्न है जैनेन्द्र जी की दृष्टि में आदर्श नारित्व क्या है और इसका उत्तर वह स्वयं देते हैं—]
" एक वस्तु है रूप पर स्त्री के आदर्श के साथ रूप का कोई सम्बन्ध मुझे नहीं दीखता, पर स्त्री ही अधिकतर यह नहीं जान पाती, इससे वह ठगी जाती है । रूप वह जो अंग से छलकता है, अमल में प्रकृति की ओर का एक छल है । मातृत्व एक दायित्व है और स्त्री को वह रूप के व्याज से ही मिलता है । रूप उसका स्वरूप नहीं है । स्त्री का स्वरूप है सतीत्व और मातृत्व । जो उस स्वरूप को नहीं अपनाती, रूप भी उसका व्यंग बनता है । वह उसके जीवन में नहीं घुलता और उसे सुन्दर नहीं बनाता । जो वयस्क होकर नवीना दीखना चाहती है, माता बनकर भी प्रेमिका बनने का प्रयास करती है, वह स्त्रीत्व की शोभा नहीं, कहलाती, उससे उल्टे जुगुप्सा होती है ।
प्रादर्श के लिये स्त्री के लिये पहली आवश्यकता है कि वह ईश्वर से अपनी सार्थकता देखने की हठ न रखे । पुरुष के पौरुष की स्पर्धा में न पड़े | बल्कि उसे उसी रूप में अपने में धारण कर कृतार्थता के अर्थ को स्पष्ट कर दे ।
कैरिरिज्म में पुरुष की होड़ है । सतीत्व में पुरुष से योग और सहयोग है । दूसरी कोई स्वतन्त्रता स्त्री के लिये भ्रम है । ग्रार्थिक जैसी किसी स्वतन्त्रता में से वह अपने को सार्थक नहीं पा सकती । ग्रहिणी धर्म में ही उसकी समुचित परितृप्ति है ।"
नारी के प्रादर्श के रूप में जैनेन्द्र जी की सतीत्व वाली बात तो सही है और वह अच्छी भी लगती है, पर न जाने क्यों 'कैरिरिज्म' के प्रति उनकी उदासीनता कुछ समझ में नहीं ग्राती । नारी के प्रति उनकी सहानुभूति और ममता इस विरोध के साथ कुछ मेल नहीं खाती । आधुनिक नारी का 'कैरिरिज्म' सिवाय अपने पैरों पर