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श्रीमती मोहिनी ओबराय
जैनेन्द्र जी के कथा-साहित्य में नारी भावना
इतिहास के पन्ने पलटते-पलटते सोचती हूँ, नारी की व्याख्या भी प्रत्येक काल में बदलती रही है । किसी ने नारी को केवल जननी के रूप में प्रतिष्ठा दी है और किसी ने उसे जीवन का प्रेरणा-स्रोत ही मान कर छोड़ दिया है । फिर कुछ ऐसे व्याख्याकार भी सामने आये, जिनके लिये नारी मदिरा के एक प्याले से ज्यादा और कुछ न थी । समय के साथ-साथ धारणाएँ भी बदलती गई । वैदिक काल की नारी का स्वतन्त्र व्यक्तित्व जहाँ धीरे-धीरे बाद में एक संकुचित दायरे में बन्द हो गया था, वह कुछ अन्तराल के बाद पुनः उस दायरे से बाहर आने का प्रयास करने लगा । नारी अपनी खोयी स्वतंत्रता को फिर से पाने के लिये तड़प उठी और उसे स्वतन्त्रता मिली भी, लेकिन इस स्वतन्त्रता ने उसके व्यक्तित्व के कई पक्षों को समाज के सामने प्रस्तुत किया, जिनका निरूपण विभिन्न दृष्टिकोणों से किया गया । पूर्व अधिकार प्राप्त बन्धनयुक्त नारी का स्वागत भी भिन्न-भिन्न तरीके से हुआ। कार्य-क्षेत्र में व्यस्त कार्यशील नारी का व्यक्तित्व कुछ और तरह से उभर कर समाज के सामने आया और दूसरी ओर चिरपरिचित भारतीय गृहणी भी विचारकों और चिन्तनशील व्यक्तियों की दृष्टि से उपेक्षित न रही। यह सही है कि कार्यशील नारी और भारतीय परम्परा का अनुसरण करने वाली केवल मात्र गृहरणा भारतीय नारी के दो अलग व्यक्तित्वों का प्रतिनिधित्व करती है, परन्तु नारी मूलतः नारी ही रहती है, चाहे वह उच्च शिक्षा प्राप्त डाक्टर है या कोई सरकारी अफसर है या चाहे वह पाँचवी पास एक साधारण पत्नी ही है । उसकी भावनात्मक आवश्यकताओं और ममता, स्नेह एवं त्याग की उसकी मूलभूत प्रवृत्तियों में कहीं कुछ परिवर्तन नहीं होता । यदि हमें कही किसी एक विशेष चरित्र में कुछ विकार दृष्टिगोचर होता है तो उसके कुछ कारण होते हैं, जिसके लिये हम पथभ्रष्ट नारी को दोषी ठहराने के अधिकारी नहीं, बल्कि हमें तो उन कारणों से घृणा करनी है और उनके निराकरण का कोई उपाय सोचना है, जिनकी वजह से किसी को पथभ्रष्ट होना पड़ता है। ऐसे में हमें सहज ही में इस कथन का स्मरण हो आता है ।
"पापी से नहीं, पाप से घृणा करो ।"
जैनेन्द्र जी का कथा-साहित्य हमें इस कथन की सत्यता से तो परिचित कराता ( १००)