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________________ १८ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व से शारीरिक धरातल पर ही रहता हो । सबके भीतर हृदय है, जो सपने देखता है । सबके भीतर प्रात्मा है जो जागती रहती है, जिसे शास्त्र छूता नहीं है, आग जलाती नहीं है । सबके भीतर वह है, जो अलौकिक है । मैं वह स्थल नहीं जानता, जहाँ अलौकिक न हो । जहाँ वह कण है, जहाँ परमात्मा का निवास नहीं है ? इसलिए आलोचक से मैं कहता हूँ कि जो अलौकिक है, यह भी कहानी तुम्हारी ही है, तुमसे अलग नहीं है । रोज के जीवन में काम आने वाली, तुम्हारी जानीपहचानी चीजों का और व्यक्तियों का हवाला नहीं है, तो क्या उन कहानियों में तो वह अलौकिक है, जो तुम्हारे भीतर अधिक तहों में बैठा है। जो और भी घनिष्ट और नित्य रूप में तुम्हारा अपना है।" उपर्युक्त उदाहरण से जैनेन्द्र के समग्र साहित्य की मूल प्रेरणा के आधारभूत तत्त्वों पर प्रकाश पड़ता है । उनका व्यक्तित्व गहन गम्भीर दार्शनिकों जैसा है। कहानी के माध्यम में भी उनकी मनोवैज्ञानिकता और दार्शनिकता के अनेक तत्त्व पूरी तरह फैले रहते हैं । धर्म, नीति और ज्ञान के निष्कर्ष उनकी कहानियों से अनायास ही निकाले जा सकते हैं। कहीं-कहीं तो उनका यह दार्शनिक रूप इतना स्पष्ट हो गया है कि मनोरंजकता और रोचकता तक को हानि पहुँची है। प्रो. प्रेमचन्द के शब्दों में यह कहना उचित ही है कि "मनोविज्ञान की दृष्टि से जैनेन्द्र पर प्राध्यात्मवादी रंग अधिक चढ़ा हुआ है, जबकि अज्ञेय जी पर फायड का । दमी से एक ने जीवन को कर्म के आलोक में देखा है, दूसरे ने काम के दर्पण में; एक ने प्रात्मा की भूख को लिया है, दूसरे ने शरीर की तृष्णा को । जैनेन्द्र-स्कूल के कहानीकारों ने नारी को भी उसकी अान्तरिक समस्याओं के बीच से उठाया है । प्रसाद ने नारी के भव्य और आदर्श रूप को प्रस्तुत किया तो इन्होंने उसके अभाव-ग्रस्त प्रपीड़ित अन्तर को । भारतीय रूढ़िग्रस्त परम्पराओं की श्रृंखला से जकड़ी हुई नारी की प्रात्मा उनमें कराह उठी है, पर जहाँ "अज्ञेय" भारतीय नारी के विद्रोही रूप को देखना चाहते हैं, वहाँ जैनेन्द्र केवल सहानुभूति के अंचल से उसके आँसू भर पोंछना चाहते हैं । भगवतीचरण वर्मा नारी के परवश रूप को ही अधिक प्रस्तुत कर सके हैं । अपनी कहानियों में जहाँ भगवतीबाब चिन्तन प्रसूत व्यंगकार अधिक हैं. वहाँ, "अज्ञेय' चिन्तनशील अहंवादी तथा जैनेन्द्रकुमार चिन्तनप्रधान भावुक हैं। __ अपनी चिन्तनशील भावुकता के कारण ही जैनेन्द्र जन साधारण तक उतने व्यापक रूप में नहीं पहुँच पाये, जितने कि प्रेमचन्द । विचार-प्रधानता के कारण जैनेन्द्र किसी शिल्प-विधान की चिन्ता नहीं कर सके, पर उनकी शिल्प विहीनता ही उनकी कहानियों का सबसे बड़ा अपनापन है, उनकी कला हीनता की सबसे बड़ी
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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