SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपन्यासकार जैनेन्द्र सभी पात्रों को सम्पूर्ण सहानुभूति के साथ चित्रित किया है । श्रेष्ठ या असद् पात्र में उन्होंने कोई अन्तर नहीं रखा है । वह स्वयं कहते हैं- "सभी पात्रों को मैंने अपने हृदय की सहानुभूति दी है । जहाँ पर यह नहीं कर पाया हूँ, उसी स्थान पर समझता हूँ, मैं चूका हूँ । दुनियाँ में कौन है जो बुरा होना चाहता है, और कौन है जो बुरा नहीं है, अच्छा ही अच्छा है । न कोई देवता है, न पशु । सब आदमी ही हैं, देवता से कम ही और पशु से ऊपर ही । इस तरह किसे अपनी सहानुभूति देने से इन्कार कर दिया जाये।" सचमुच ही एक श्रेष्ठ उपन्यास की तरह उन्होंने अपने सभी पात्रों को समान सहानुभूति दी है और सर्वत्र इस दृष्टिकोण को अपनाया है । प्रायः उनके सभी पात्र एक ही स्तर की भाषा का प्रयोग करते दिखाई देते हैं । वही छोटे-छोटे वाक्य, अटूट प्रवाह और बहता रस, सरस और सरल वाक्यों में गुथी सुसंगठित कथा को कहते उनके पात्र दिखाई देते हैं। माधुर्य, प्रोज और प्रसाद तीनों ही गुणों में उनकी शैली मंडित है । भाषा तो सर्वत्र ही सरल और भावानुकुल है । जैनेन्द्र ने अपने उपन्यासों की भाषा को देश-विदेश की सीमित शृंखलाओं में भी बंधने नहीं दिया है । जैसी अावश्यकता पड़ी, वैसी ही भाषा का प्रयोग कर लिया । बंगाली, उर्दू और अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों का प्रयोग भी उन्होंने पात्रानुकूल कर दिया है । यही नहीं, चिन्तनशील पात्रों के चित्रण में गम्भीर शैली का प्रयोग करके भी उन्होंने स्वाभाविकता लाने की चेष्टा की है। अपनी रोचक शैली और सुबोध भाषा से ही उन्होंने गम्भीर विषयों को भी सरल बना दिया है। भाषा की तरह जैनेन्द्र ने रोचक, उद्देश्यपूर्ण, सरस एवं सरल कथोपकथनों का प्रयोग अपने उपन्यासों में किया है। कथा को आगे बढ़ाने में वह सर्वथा सहायक होते हैं और पात्रों के चरित्र को चित्रित करने में सहायक होते हैं । यही क्यों, कथोपकथन में नाटकीयता का तत्व भी उनके प्रत्येक उपन्यास में देखने को मिलता है । कथाविन्यास की दृष्टि से जैनेन्द्र के उपन्यास यदि देखे जायें तो सब तरह से पूरे उतरते हैं और यदि यह कहा जाये कि मानव मन के चित्रण में उन्होंने जो सफलता प्राप्त की है, वह अन्य किसी उपन्यासकार ने नहीं, तो कुछ अनुचित न होगा। हाँ, पात्रों में अत्यधिक पीड़ा, दुःख, क्षोभ और वैराग्य की भावना चित्रित करने से आलोचकों ने जैनेन्द्र ही पर साहित्य में नैराश्य का प्रतिपादन करने का दोष लगाया है। यही नहीं, उनके पात्रों के संसार से विरक्ति के भाव को लेकर भी उन पर पलायनवादिता का दोष मढ़ा जाता है, किन्तु वास्तव में यह आक्षेप उचित नहीं। मानसिक जगत के जिन द्वन्द्वों का चित्रण जैनेन्द्र ने किया है, वह वास्तविक यथार्थ है और
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy