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________________ हेन् जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्य संघर्ष आ गया है । इस प्रकार यहाँ एक ओर जहाँ प्रेम की हिंसा भाव पर विजय दिखाई गई है, वहाँ नारी की सार्थकता उसके घर में ही है, इस बात की भी पुष्टि कर दी गई है | 'त्यागपत्र' और 'कल्याणी' में लेखक ने नारी जीवन की अनेक समस्याओं को उभारा है । 'परख' में जो कि जैनेन्द्र जी का प्रथम उपन्यास है, वैधव्य और प्रेम के प्रश्न को उठाया गया है । इस प्रकार उपन्यासकार जैनेन्द्र ने जीवन की विभिन्न समस्याओं और अनुभूतियों को ही मनोवैज्ञानिक कसौटी पर कसकर अपने उपन्यासों में उभारा है। जैनेन्द्र के अधिकांश पात्र व्यक्तिवादी हैं, क्योंकि उनके उपन्यास चरित्र - प्रधान हैं । जीवन में आज कितनी निराशा है, व्यक्ति कितना अप्रसन्न है, कितना दुःखी है । किस प्रकार समाज की परम्परागत मान्यताएँ उसके विकास में बाधक हैं, जैनेन्द्र ने अपने पात्रों के मानसिक उथल-पुथल को लेखनी-बद्ध कर स्पष्ट कर दिया है । इनके अधिकांश नारी और पुरुष पात्र विवादग्रस्त व असहाय अवस्था में चित्रित किये गये हैं जिससे कि दुःखी होकर वह संसार से ही विरक्त हो जाते हैं । मृणाल अपने जीवन की अपार व्यथा को लिये हुये ही इस संसार से सदा के लिये कूच कर जाती है । सुखदा क्षयरोग से पीड़ित हो अस्पताल में दिखाई देती है और कल्याणी तो अपनी वेदना के कारण सदा-सदा के लिये ही मूक होकर रह जाती है । उनके हर पात्र जीवन के प्रति घोर निराशा का भाव चित्रित होता है । हरिप्रसन्न सुनीता से अप्रसन्न होकर पलायन का पथ पकड़ता है और सर एम० ए० दयाल जजी से त्यागपत्र दे साधु बन जाता है । सुखदा में जैनेन्द्र के नारी पात्रों के समान करुणा की अपेक्षा हमन्यता अधिक है, जिसके कारण कि वह पति के साथ भी नहीं रह सकती, किन्तु बाद में वह ही पश्चात्ताप की ग्रग्नि में जलती है, जिससे कि उसका चरित्र और भी निखर प्राया है । सुखदा में यदि 'अहंभावना' प्रधान है तो पति में समर्पण । दोनों के दो विरोधी स्वरूपों को जैनेन्द्र जी ने सफलता पूर्वक चित्रित किया है । उसके पति के ये शब्द पाठक के हृदय को छूते हैं और उसके हृदय की विशालता को परिलक्षित करते हैं कि वह विवाह को एक बन्धन नहीं मानता - "तुम्हारा मुझसे विवाह हुआ है, हरण नहीं । विवाह में जो दिया जाता है, वही आता है । पराधीनता किसी ओर नहीं प्राती । सुनो, सुखदा ! स्वतंत्रता तुम्हारी अपनी है और कहीं आने-जाने में मेरे स्याल से रोक-टोक की भावना मुझ पर आरोप डालना है । मुझसे पूछो तो तुम्हें अपने में प्रतिरोध लाने की कोई आवश्यकता नहीं है ।" उसकी इस अभिव्यक्ति से इन विचारों से हमें लेखक के विस्तृत दृष्टिकोण का आभास मिलता है जो कि निश्चय ही आधुनिक युग के अनुकूल है । उन्होंने अपने
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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