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________________ उपन्यासकार जैनेन्द्र ६३ मेरे मन में सहसा चारों ओर से फूट कर लहक उठे । अपनी परिस्थिति और अपनी नियति की सब मर्यादाओं और बाधाओं को तोड़ कर ऊपर चलना होगा, ऊपर, ऊपर। कुछ मुझे रोक न सकेगा । ऐसा मालूम होने लगा जैसे जो है सब तुच्छ है, सब शन्य है, मेरी उद्दामता के आगे सब विवश हो गया है । उस समय मेरे स्वामी, जड़ित और चकित मुझे अपदार्थ लग पाये ।' दूसरी ओर सुखदा नारी के प्राकृतिक रूप की प्रतीक है, जो कि अपना घर चाहती है, उसके बन्धन चाहती है, पत्नीत्व चाहती है, गृहणीत्व चाहती है, मातृत्व चाहती है, बाहर रहते हुये भी घर के बन्धन चाहती है, स्वामित्व चाहती है । बन्धनों को तोड़ कर भी उसमें बंधना चाहती है । उसका पति आसानी से उसे लाल से मिलने की छूट दे देता है । किसी भी प्रकार उसकी प्रगति में बाधक नहीं बनता, यह बात सुखदा के नारो हृदय को भाती नहीं"स्वामी ने प्रतिरोध नहीं किया। प्रतिरोध उन्हें करना चाहिये था। स्त्री को राह देना, उसे न समझना है । गति वह उतनी नहीं चाहती जितनी स्वीकृति चाहती है। स्वीकृति में दूसरे का अपने पर स्वत्व शायद स्थायित्व भी चाहती है। वह न पाकर पुरुष की ओर से निपट अनुमति आती है तो इस पर स्त्री का क्षोभ सीमा लाँच जाता है।" __ सच तो यह है कि सुखदा में आधुनिक नारी के हृदय का द्वन्द्व है, जो बंधनों और घर के साथ-साथ स्वच्छन्दता, स्वतंत्रता, प्रेम और प्रतिष्ठा भी चाहती है। इस प्रकार सुखदा में आधुनिक नारी के इस मानसिक द्वन्द्व का चित्रण बहुत सुन्दर हमा है । यह स्वरूप उपन्यास में इतना निखरा है कि उसके सम्मुख उसके अन्य रूप फीके से ही दिखाई देते हैं और यह इस प्रकार जहाँ 'सुखदा' एक ओर नारी के बाह्यक्षेत्र की कहानी कहती है, वहाँ उसके घर के जन्म-जन्म के लगाव की भावना को सुरक्षित रख लेती है। भारतीय नारी के पत्नीत्व-गृहणीत्व और मातृत्व के आदर्श को स्थापित कर देती है, उनका एक स्थान निश्चित कर देती है । यही क्यों, सुखदा यह सत्य भी स्थापित कर देती है कि नारी चाहे कितने ही बन्धनों को तोड़ कर घर से बाहर आ जाये, चाहे वह कितनी ही प्रतिष्ठा और स्वतंत्रता क्यों न पा ले, किन्तु उसका वास्तविक सुख उसे घर में ही मिल सकेगा । उससे दूर जाकर वह भले ही सारे संसार को जीत ले, भले ही दुनिया भर की स्वतंत्रता, यश और प्रतिष्ठा पा ले, किन्तु अपने को, अपनी भावनाओं को, वह नहीं जीत सकती। वह उस प्यार, अपनत्व और नारीत्व के बिना मन का चैन नहीं पा सकती। नारी की यही समस्या 'सुनीता' और 'विवर्त' की कथा में चित्रित की गई है । सुनीता में भी घर और बाहर के संघर्ष में घर की विजय दिखाई गई है । 'विवत्तं' में यू तो लेखक ने हिंसा और अहिंसा के प्रश्न को ही प्रमुख रूप से उठाया है, किन्तु सुखदा की भाँति इसमें भी घर और बाहर का
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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