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________________ ६२ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व सुग्वदा पर इस घटना का इतना असर पड़ता है कि उसे घर का जीवन बिल्कुल वकार नज़र आने लगता है और यहाँ तक कि पति का जीवन भी उसे अर्थहीन नज़र आता है और वह सार्वजनिक जीवन में प्रविष्ट होने के लिये उतावली हो जाती है और बाह्य क्षेत्र में काम करके अपने व्यक्तित्व का सिक्का सब पर जमा देना चाहती है। सुखदा के ही मुख से ..... 'मेरा भी अपना दायरा बना और फैला-जी में था कि देख और दिखाऊँ कि मैं क्या हो सकती हैं, कि मैं क्या हैं घर की दासी जो स्त्री बन सकती है, वह मैं नहीं हूँ।' और धीरे-धीरे सुखदा ने बाह्यजीवन में अपने पैर जमा लिये । वह क्रान्तिकारी संघ की उपाध्यक्षा बन जाती है । सार्वजनिक सभाओं में खूब आना-जाना व भाषण आदि करना भी शुरू कर देती है। इसी समय यहाँ पर उसका परिचय लाल से होता है और बरबस ही वह उसके स्वतंत्र और प्रभावशाली व्यक्तित्व तथा रहस्यात्मक चरित्र के प्रति आकर्षित हो जाती है । सुखदा के पति को लाल पसन्द नहीं है, फिर भी वह सुख दा के मार्ग में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं करता और सुखदा और लाल के मार्ग से हट जाता है । वह सुखदा को यह कभी अनुभव नहीं होने देता कि वह विवाहिता होने के कारणा लाल से प्रेम नहीं कर सकती और वह अपनी सहृदयता दिखाते हुए उसे पूर्ण स्वतत्रता दे देता है । उधर लाल और संघ के नेता हरीश में जो कि सुखदा के पति का दोस्त भी है मतवभिन्य हो जाता है जिसके परिणामस्वरूप हरीश संघ का विघटन कर देता है। सुखदा एक बार फिर घर लौट जाती है, किन्तु फिर घर में लड़ाई-झगड़े और पति से न बनने के कारण क्रुद्ध हो जाती है और अपनी मां के पास चली जाती है । इस प्रकार सुखदा का समस्त वातावरण नैराश्य और कुण्ठा की भावनाओं से आक्रान्त है । यू तो एक तरह से सुखदा में क्रांति की कथा का वर्णन हुआ है, किंतु क्रान्ति का गौरव कोई विशेष प्रकट नहीं होता । हाँ, सुखदा के जीवन में बाह्य क्षेत्र में निकल पड़ने की जो विचारों की क्रान्ति आ जाती है और जो कुछ उस क्रान्ति के वशीभूत हो वह कर जाती है, उस द्वन्द्व का चित्रण बहुत ही स्वाभाविक व सफल बन पड़ा है। सुखदा आधुनिक नारी की ऐसी प्रतीक है जो जीवन में प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहती है । अपने व्यक्तित्व को विकसित करना चाहती है। समाज में प्रतिष्ठा पाना चाहती है । अपना स्वतंत्र, स्वच्छन्द और मन पसन्द जीवन व्यतीत करना चाहती है। उसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं चाहती । केवल अपनी ही जीत और अपना ही यश सर्वत्र व्याप्त करना चाहती है । सुखदा भी तो कहती है- "मैं नहीं समझ सकती कि उस क्षण मैं क्या चाहती थी? शायद मैं जीतना चाहती थी। हर किसी से जीतना चाहती थी। क्या कहीं हार का भाव भी था कि जीत की चाह इतनी पावश्यक हो गई थी-वह सब कुछ मुझे नहीं मालूम, लेकिन दुर्दम कर्त्तव्य के संकल्प
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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