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________________ जैमेन्द्र : व्यक्तित्व श्रौर कृतित्व आप में सत्य है भी तो नहीं । वह तो अनित्य है, क्षणिक है। इसमें उनमें फेरफार कर देने से सत्य की क्षति नहीं होती ।" इसीलिये वे किसी समाज या समूह का चित्रण नहीं करते. वरन् केवल व्यक्ति और व्यक्ति की मनोभावनाओं में खोकर रह गये हैं । व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के संघर्ष के परिणामस्वरूप जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है और उस समय जो उसके मन की वास्तविक स्थिति होती है, उसी का चित्रण करने में उन्होंने अपनी कला को निखारा है । इसका बहुत कुछ कारण यह भी है कि जैनेन्द्र की स्वयं की भावना व्यक्तिगत है, एकांतिक है । उन्होंने स्वयं उन दुखों, उन कठिनाइयों और समस्याओं का अनुभव किया है जो व्यक्ति के मर्म को छती हैं, और एक मार्मिक वेदना और तीव्र संघर्ष अन्तःकरण में व्याप्त कर देती है । मध्यवर्गीय परिस्थिति किस प्रकार निराशा, कुठाजन्य भावों से ग्रसित है. किस प्रकार उसके जीवन को दुखमय बना देती हैं, यही अनुभव उनकी सभी कृतियों में उभर कर श्राया है । और सच पूछा जाये तो उन्होंने अपने भीतर के कुण्ठाभाव को बाहर निकाल फेंक, दिल हलका करने और ग्रात्मपरिष्कार के निमित्त ही साहित्य लिखना प्रारम्भ किया । इसे वे स्वयं ही स्पष्ट करते हुये लिखते हैं- "पहला श्रेय मेरे साहित्य का यह हुआ कि उसने मेरी रक्षा की। मैं बचकर उसमें शरण ले सका, उसने मुझे जिलाया । अपने भीतर की आत्मग्लानि, हीन भावनाएँ और उनमें लिपटी हुई स्वप्नाकांक्षा इस सबको कागज पर निकाल कर जैसे मैंने स्वास्थ्य का लाभ किया । जो मेरे अन्दर घुट रहा था उसी को बाहर निकालने की पद्धति से देखा कि मैं उससे मुक्ति पा रहा हूँ । उसके नीचे न रहकर उसके ऊपर ग्रा रहा हूँ। जो कमजोरी थी, और मुझे कमजोर कर रही थी, उसी को स्वीकार करके और रूप और ग्राकार पहनाकर, मैं कमजोर क्या, मज़बूत बन रहा हूँ । इस अनुभव से मैं कहूँगा कि साहित्य का पहला श्रेय है जीवन का लाभ | अपनी अंतरंगता की स्वीकृति और प्राप्ति, अपने भीतर के विग्रह की शांति, उलभन की समाप्ति और व्यक्तित्व की उत्तरोत्तर एकत्रितता ।" ६० साहित्य पर लागू होता समाज या राष्ट्र नहीं । जो कुछ मेरे पास रहा सचमुच ही जैनेन्द्र का उपरोक्त कथन उनके सारे है | उनके समस्त उपन्यासों का केन्द्र बिन्दु 'व्यक्ति' ही है, वे क़दम क़दम पर अपने पाठकों को स्पष्ट कर देते है है, बाहर को देखना, बुद्धि का विचारना और मन का चाहना सब कुछ घुलमिल गया है और किसी एक अनुभूति के करण के चारों ओर जुड़ कर कहानी की रचना कर देता है ।" वास्तव में उनके सभी उपन्यासों की कथाएं सूक्ष्म हैं और पात्र भी गिनेचुने ही हैं। उन्होंने कथा केबल कथा कहने मात्र के लिये नहीं कहीं और न ही केवल
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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