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जनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व
समर्पित कर देने की सीमा पर पा जाती हैं, तब उनकी अंतरात्मा- (कांशेस) यानी, पातिवृत्य-सम्बन्धी सामाजिक संस्कार-उन्हें पति के प्रति विश्वासघात करके स्वयं अपनी ही नज़रों में गिरने नहीं देती और उनका समर्पण होता-होता सहसा बीच में रुक जाता है।
इस प्रकार, एक लंबे समय तक उनके अचेतन में उनकी अंतरात्मा (कांशेस) और काम-वासना में घोर संघर्ष चलता रहता है । यद्यपि अधिकतर उनकी अंतरात्मा ही प्रबल रहती है, पर वह काम-प्रवृत्ति को पूरी तरह शासित नहीं रख सकती। इस घोर मानसिक संघर्ष का परिणाम यह होता है कि जनेन्द्र की नायिकाएं पति तथा प्रेमी, दोनों से ही कटी-कटी रहती हैं । अपने में सिमटकर वे अपने को शून्य बना लेती हैं
और वह शन्य उन्हें भीतर ही भीतर काटता रहता है। पर 'नितान्त एकाकी रहकर किसी को कैसे सुख मिल सकता है ?' वे ताड़ के पेड़ की तरह ऊची तनकर अकेली न खड़ी रह सकीं। "उनके भीतर तक व्याप्त एक से दो होने की मांग" अन्ततः उन्हें प्रेमी के प्रति समर्पित होने के लिये मजबूर कर देती है। समर्पण में उनका अहं टूट जाता है और वे विराट् में विदेह बनने के लिए मचल उठती हैं, मानों अपने स्रष्टा का यह अनूभूत सत्य उन्होंने भी पा लिया हो कि "ऐक्य-बोध ही सबसे बड़ा ज्ञान-लाभ है, मात्मार्पण में ही प्रात्मोपलब्धि है, प्राग्रहपूर्ण संग्रह में लाभ नहीं,” और 'उनके भीतर का बिछुड़ा खण्ड अखण्ड से ऐक्य के लिए तड़प उठता है।'
यही है जैनेन्द्र का जीवन-दर्शन और उनके उपन्यासों का मूल स्वर । पर जैनेंद्र के उपन्यास और उनके पात्र अपने स्रष्टा के जीवन-दर्शन को इतना खुलने कहाँ देते हैं ? उनके पात्रों का तर्क उनके ही भीतर सन्निहित रहता है और उसके संकेत-सूत्र उपन्यास भर में बिखरे भी नहीं रहते, प्रत्युत नाना रूप धारण कर पाठकों को भरमाते भी रहते हैं। इसीलिये समूचा उपन्यास पढ़ चुकने पर भी कई बार पाठक हाथ मलता रह जाता है।