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________________ जनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व नहीं । प्यार का हक़ सबको है । तुम्हारा, मेरा, उसका, सबका, ।" और उसका मार्ग प्रशस्त करते हुए कहता है : "अगर मैं सौ फी सदी तुम्हारा हूँ तो एक फ़ी सदी भी मुझं अतिरिक्त गिनती में मत लो।" सुखदा के पति ने भी तो उसे यही कहा था : "मैं हूँ, यही तुम्हारी दिवक़त है, है न सुखदा ? आज तुमसे कहता हूँ कि मुझे अपने में मान लो। इस तरह की बातों में मेरा अलग विचार न किया करो।" इसीलिये तो पर-पुरुष से प्रेम करने पर भी जनेन्द्र की नायिकाएं अपने पतियों में संघर्ष नहीं उठा पातीं। पति ही जब स्थिति को ज्यों का त्यों स्वीकार कर ले तो संघर्ष कैसे हो? जैनेन्द्र की नायिकाओं को भी बाहर संघर्ष के लिये कुछ नहीं रहता । लोकापवाद की उन्हें चिन्ता नहीं । समाज तो मानों उनके लिये अस्तित्व ही नहीं रखता । शेष रहे पति, वे उनके मार्ग में पड़ते नहीं, प्रत्युत् उन्हें प्रोत्साहन देते रहते हैं । फिर भी, जैनेन्द्र की नायिकाएं जीवन भर मानसिक यातनाओं के कुड में तिल-तिल करके जलती रहती हैं । बाहर से शांत और स्थिर दीखने पर भी भीतर ही भीतर वे बेहद बेचैन रहती हैं । बाहरी संघर्ष के प्रति उदासीन होने पर भी वे अपने भीतरी संघर्ष से नहीं बच पातीं। उनके भीतर निरन्तर एक हलचल मची रहती है, जो उन्हें सदा बेचैन किये रखती है । पर यह सब क्यों ? माना कि जिससे उनका प्रेम हो गया, उससे विवाह न हो सका और जिससे विवाह हो गया, उससे प्रेम न हो सका । पर जब पति स्वयं ही अपनी पत्नी और उसके प्रेमी के बीच से हटकर उनके लिये रास्ता साफ़ कर दे तो पत्नी के बेचैन रहने का कोई स्पष्ट कारण नहीं रहता। 'विवर्त' की भुवनमोहिनी जैसी स्त्री जो बिना किसी प्रकार के संकोच या डर के विश्वासपूर्वक अपने प्रेमी से यह कह सकती हो कि, ' मैं सब कुछ तुम्हारी हूं और पति की केवल पत्नी,' यदि वह भी मानसिक यातनायें भोगती हुई घुल-घुलकर मरती रहे तो आश्चर्य ही होगा। कुछ भी हो, सच यही है कि पतियों से आश्वासन पाकर भी जैनेन्द्र की नायिकाएं आश्वस्त नहीं हो पातीं। पतिव्रता नारी के पम्परागत संस्कार उनके अवचेतन मन पर इतने गहरे पड़े हैं कि वे पति के प्रति उदासीन होने और प्रेमी की ओर अधिकाधिक आकृष्ट होने के विचार तक से ही अपने को अपराधी पाती हैं और लाख चेष्टा करने पर भी अपने को पति से अलग नहीं कर पातीं। हरीश दादा द्वारा बुलाई गई क्रांतिकारी दल की एक बैठक में भाग लेने के लिए घर से चलते समय सुखदा ने पति से ये शब्द कहे थे, "स्त्री के भी हृदय होता है और वह भी दायित्व रखती है। मैं इस सभा में जाऊँगी । तुम रोक नहीं सकते।" जिस सुखदा को अपने पर इतना विश्वास था, जब उसी सुखदा को बैठक में हरीश से यह कहते सुनते हैं, "मैं तो साथ हूँ, पर पदाधिकारी न बनावें । और अभी, 'उन' से पूछना भी बाकी है।"
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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