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जैनेन्द्र के उपन्यासों का मूल स्वर निष्कर्ष विहीन है।" इस प्रकार जैनेन्द्र के उपन्यासों के प्रति पाठकों की प्रतित्रिया व्यक्त हुई।
जैनेन्द्र के उपन्यासों में सामाजिक जीवन से पलायन की प्रवृत्ति को बल मिलता दीखे तो अाश्चर्य न होगा। उनके पात्र सामाजिक जीवन से सदा बचते रहे हैं । भाग्य से अथवा समाज और उसके विधि-निषेधों से टक्कर लेने का दम उनमें नहीं। इसके विपरीत वे नियतिवादी के रूप में हमारे सामने आते हैं। किसी भी प्रतिकूल स्थिति के प्रति वे विद्रोह नहीं करते; बल्कि बिना मीन-मेख निकाले उसे स्वीकार कर लेते हैं । 'परख' की कट्टो के शब्दों में, पात्र जब यह मान ले कि "अनहोनी घट नहीं सकती, होनी टल नहीं सकती। जो हो गया, हो गया। उसे मिटाना अब बस से बाहर की बात है।"-तो वह बाह्य संघर्ष की ओर प्रवृत्त कैसे हो सकता है ? जैनेंद्र के सभी पात्र नियति के बहाव में बहते हैं । श्रीकान्त की चिट्ठी पर विचार करती हुई सुनीता भी यह स्थिर करती है : "मुझे 'नियति के बहाव में बहते ही चलना है. धर्म-अधर्म बिसार देना है ।" 'विवर्त' की भुवनमोहिनी भी जितेन को ढाढस बँधाती हई कहती है, "घबरानो नहीं । जो हुआ हो गया । होनहार कभी टला है ?" जयवर्धन भी पानी विवशता स्वयं स्वीकार करता है : “मैंने कभी नहीं पाया, विल्बर, कि कुछ मेरे वश का है, तिनका तक उसके हिलाये हिलता है ।" इस प्रकार जैनेन्द्र के पात्रों को अपने बाहर जूझने के लिये, संघर्षनिरत होने के लिये, कुछ रहता ही नहीं। बाहरी संघर्ष के कारणों के उपस्थित होते हुए भी वे उनके प्रति अाँख मूद लेते हैं। संघर्ष की चुनौती वे एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते हैं।
असल में बात यह है कि जैनेन्द्र के पात्र माँसल कम और मानसिक अधिक हैं । समाज में रहते हुये भी वे उससे कटे कटे-से दीखते हैं । समाज के नाम पर उनका काम पड़ता है पति या पत्नी के किसी मित्र या प्रेमी से । जैनेन्द्र की नायिका की मख्य समस्या यह है कि उसका प्रेमी और पति एक न होकर अलग-अलग दो पुरुष होते हैं। जिससे उसका प्रेम हो जाता है, उससे विवाह नहीं हो पाता और जिससे विवाह हो जाता है उससे प्रेम नहीं हो पाता । ऐसी स्थिति में भीतरी और बाहरी, दोनों प्रकार का घोर संघर्ष पति-पत्नी में चल सकता है, जिससे तंग आकर वे एक दूसरे को मार सकते हैं या विष आदि खाकर स्वयं मर सकते हैं, और नहीं तो घोर मानसिक वेदना से पागल तो जरूर हो गये होते । पर जैनेन्द्र के पात्रों के साथ ऐसा कुछ नहीं होता। उनके चेतन मन में इस विषय को लेकर कोई विशेष संघर्ष नहीं छिड़ता, क्योंकि वे स्थिति को साधारण मानकर उससे मानसिक संतुलन बैठा लेते हैं। वास्तविकता प्रकट हो जाने पर पति उदार हो जाता है और 'विवर्त' के नायक नरेश की तरह पत्नी को ढाढस बँधाता हुआ कहता है : “मुंह छिपाने की तुम्हारे लिये कोई बात