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डॉ० रणवीर रांगा
जैनेन्द्र के उपन्यासों का मूल स्वर
जैनेन्द्र हिन्दी-जगत् में एक पहेली के रूप में आये। ये पहले उपन्यासकार हैं जिन्होंने हिन्दी के पाठक को घिसी-पिटी नैतिकता की संकीर्णता से निकाला। यही नहीं, उसे मूल नैतिकता तक पहुँचाने वाले गहरे आत्म-चिन्तन की ओर सबसे पहले प्रवत्त करने का श्रेय भी इन्हें ही है । जैनेन्द्र तक पहुँचते-पहुँचते हिन्दी-उपन्यास के पाठक को सामाजिक मूल्यों की अपनी परख पर जो एक प्रकार का विश्वास हो गया था, जनेन्द्र ने आते ही उसे हिला दिया। प्रेमचन्द-युग के उपन्यासों ने 'सु' और 'कु', पाप और पुण्य तथा देव और दानव का जो रूप स्थिर कर रखा था, जैनेन्द्र ने उसे चुनौती देते हुये पाठक से अनुरोध किया कि वह इन सामाजिक मूल्यों के बाहरी रंगरूप में न उलझा रहकर उनकी आत्मा तक पहुँचने का प्रयास करे ।
अपनी चिर-पोषित मान्यताओं को इस प्रकार झुठलाया जाता देख पाठक को झझलाहट तो बहुत हुई, पर वह छटपटा कर रह गया, कर कुछ न सका । समाज के प्रचलित मूल्यों की पर्त पर पर्त खोलते हुये उनकी तह में छिपी नैतिकता का जो रूप जैनेन्द्र ने चित्रित किया, पाठक उसकी सत्यता को स्वीकार तो न कर सका, पर उसे यह महसूस होने लगा कि लेखक की चुनौती में कुछ सार अवश्य है, उसने कहीं गहरी चोट की है । पर इससे क्या होता ? परम्परागत संस्कार एकदम तो नहीं धुल जाते । शायद इसीलिये, जैनेन्द्र से भी वही आशा की जाने लगी जो उनसे पहले के उपन्यासकारों से की जाती थी। उपन्यासों में भी प्रचलित विचार-धाराओं के आधार पर जीवन और जगत् की समस्याओं का हल ढूढ़ा जाने लगा, किन्तु इससे निराशा ही हाथ लगी। चारों ओर से आवाजें उठने लगीं । किसी ने कहा : "जैनेन्द्र के उपन्यास पहेली हैं। इस प्रहेलिका पर हम सोचते ही रह जाते हैं; कुछ पार नहीं मिलता, कुछ भेद नहीं पाते ।" दूसरी आवाज़ ज़रा ऊँची और कठोर थी; “विचार मौलिकता का जो सक्रिय और स्पष्ट स्वरूप हम एक मौलिक विचारक और कलाकार की कृति में देखने को उत्सुक रहते हैं, उसकी आंशिक पूर्ति भी जैनेन्द्र के उपन्यासों द्वारा नहीं हो पाती।'' एक आवाज़ उनके नैतिक निरूपण के विरोध में उठी : "नैतिक पादों को जैनेन्द्र के उपन्यासों में कोई स्थिर मान्यता प्राप्त नहीं । उनका दर्शन सामाजिक जीवन के पलायन का दर्शन है ।" किसी ने कहा : "जैनेन्द्र के उपन्यासों का अंत
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