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यथार्थ और उपन्यासकार जैनेंद्र कुमार
में आने वाले व्यक्ति अथवा परिवार तक ही सीमित है । प्रेमचन्द जी की समस्याओं को हल कर लेने से सम्पूर्ण समाज की समस्या हल हो जाती है तो जैनेन्द्रजी की समस्या के हल से केवल कुछ व्यक्तियों की समस्या का समाधान मिलता है, जो विद्रोह कर रहे हैं । यद्यपि जैनेन्द्र जी की औपन्यासिक समस्याओं को व्यापक सहा नुभूति नहीं मिल सकी है, पर उनके अन्दर व्यक्ति को रुला देने की अपार शक्ति भरी है। इसमें सन्देह नहीं कि जैनेन्द्र जी हिन्दी-कथा-साहित्य में एक ऐसी विचारधारा के प्रवर्तक हैं जिसकी प्रवाहमान धारा से अनेक स्रोत फूटकर स्वतंत्र सरिता का रूप धारण कर बैठे हैं। हिन्दी-साहित्य का अाधुनिक इतिहास लिखते समय एक भी इतिहासकार ऐसा नहीं होगा जो जैनेन्द्र जी के ऐतिहासिक महत्त्व की उपेक्षा कर सके।