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यथार्थ और उपन्यासकार जैनेंद्रकुमार जैनेन्द्र जी ने अपनी व्यक्तिवादी विचारधारा को-मानसिक ग्रन्थि से उद्भूत कुण्ठा को जो उनके पूर्व लिखित उपन्यासों में स्पष्ट दार्शनिकता के प्रावरण में ढक गयी थी-मनोविश्लेषणात्मक पाच्छादन में छिपाया था, उसे भी 'सुखदा', 'विवर्त' और 'व्यतीत' में अनावृत कर दिया है । इनके सभी उपन्यासों में प्रायः एक ही प्रकार की टेक है। जैनेन्द्र जी के नारी पात्र प्रायः अपने दाम्पत्य जीवन में दुःखी हैं अथवा वर्तमान परिस्थितियों से पीड़ित हैं, 'कल्याणी' जिसका सर्वोत्तम उदाहरण है। 'कल्याणी' में नायिका पति द्वारा प्रताड़ित होने पर उससे सम्बन्ध-विच्छेद करना चाहती है, फिर भी नहीं छोड़ पाती। इनके नारी पात्रों के अन्दर सामाजिक मान्यता के प्रति विद्रोही भाव तो उग्र रूप में विद्यमान हैं, पर उनका शोषरण होता ही है । 'कट्टो', 'सुनीता', 'मृणाल बुमा' और 'कल्याणी' की बेबसी तो हम देख ही चुके हैं, पर जैनेन्द्र जी अपने अन्य उपन्यासों में जो करते-करते रुक गये थे, उसे उन्होंने 'व्यतीत' में पूरा कर लिया, जहाँ प्रेम और विवाह में कोई सम्बन्ध ही नहीं दिखलाई पड़ता । इनका पुरुष इतना पाकर्षक है कि सभी लड़कियाँ उससे प्रेम करने लग जाती हैं । 'चन्दा' का विवाह तो 'जयन्त' के साथ एक निमित्त मात्र है, क्योंकि इसके अतिरिक्त भी अनैतिक प्रेम-व्यापार चलता ही रहता है । अनिता, सुनिता तथा कपिला ग्रादि सभी जयन्त से प्रेम करती हैं और कुछ तो अधिकार तक भो दे पाती हैं, पर उनमें से एक भी उसकी परिणीता नहीं । उपन्यासकार ऐसे सम्बन्धों को अनैतिक नहीं मानता । पुरुष पात्र प्रायः नारी के प्रति उदासीन ही रहते हैं । वे पुरुष सुलभ आकर्षण से वंचित रखे गये हैं, परन्तु नारी बार-बार पाकर उनसे टकराती है और अपना भावुकतापूर्ण निरीह प्रात्म-समर्पण करती है । 'परख' में प्रात्मसमर्पण अव्यवहारिक होते हुये भी असामाजिक नहीं होने पाया है, किन्तु परवर्ती उपन्यासों में नग्नता बढ़नी गयी है । 'सुखदा' की कथा को राष्ट्रीय प्रान्दोलन और क्रान्तिकारियों के जीवन तक खींच लाने के कारण ही जैनेन्द्र जी उसे यथार्थवादी बना सके हैं, अन्यथा 'व्यतीत' की भांति यह उपन्यास भी स्त्री पुरुष के नैतिक और अनैतिक सम्बन्धों तक सीमित रह जाता । 'सुखदा' का असन्तोष देश-भक्ति में तो बदला, पर 'लाल साहब' के सम्पर्क में प्राकर वह एक ऐमी कथा का निर्माण करती है जिसके माध्यम से क्रान्तिकारियों के यथार्थ जीवन पर प्रकाश पड़ता है, उनकी सबलतायें एवं दुर्बलतायें स्पष्ट रूप में पाठकों के सामने या जाती हैं। अपेक्षाकृत जो चित्र इसमें पाये हैं, उनमें कलात्मकता और मनोवैज्ञानिक विवेचन का सहारा लिया गया है जिसका 'व्यतीत' में नितान्त अभाव है । इसमें प्राकर तो नग्नता अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गई है। लेखक ने 'अनीता' और 'चन्द्रकला' का जैसा प्रात्म-समर्पण 'जयंत' के सामने कराया है, वैसे चित्रण-कला की दृष्टि से भले ही श्रेष्ठ हों, पर