SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 101
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व नारी विषयक दुर्बलताओं का भण्डाफोड़ किया है, जिसकी यथार्थता से हम इन्कार नहीं कर सकते । इसका संकेत मैंने पूर्व में ही कर दिया है कि जैनेन्द्र जी ने समाज अपेक्षा परिवार और व्यक्ति को ही अपनी रचना का अधिक आधार बनाया है, जिसकी अभिव्यक्ति 'शरत' और 'रविबाबू' की रचनात्रों में हो चुकी थी। अपनी अन्य रचनाओं की अपेक्षा जनेन्द्र जी ने 'त्याग-पत्र' की सीमा में व्यापक समाज को चित्रित करने का प्रयत्न अवश्य किया है, पर चित्ररण का आधार एक पात्र 'मृणाल बुना ' ही है । 'प्रेम' जो कि मानव मात्र के लिये अपरिहार्य एवं जीवन का श्रावश्यक अंग है, उसके प्रति 'जैनेन्द्रजी' का दृष्टिकोण अत्यन्त व्यक्तिवादी है । ये प्रेम को समाज की वस्तु नहीं, बल्कि उसे एक मात्र वैयक्तिक वस्तु के रूप में स्वीकार करते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि जिन प्रश्नों को मुँशी प्रेमचन्द जी ने उठाकर छोड़ दिया था, जैनेन्द्र ने उनका समाधान ही नहीं प्रस्तुत किया, बल्कि उन्होंने उसकी सारी स्थिति ही बदल डाली । परम्परा से चली आती सारी मान्यताओं को इनके उपन्यासों में ठुकरा दिया गया है । 'परख' को छोड़कर इनके सभी उपन्यासों वैयक्तिकता की चरम अभिव्यक्ति है । 'सुनीता' की नारी तो पति द्वारा ही परपुरुष से प्रेम का स्वांग करने के लिये प्रेरित की जाती है । यद्यपि लेखक ने उसे वैज्ञानिक प्रयोगों की पुत्तलिका के रूप में ही चित्रित करना चाहा है, किन्तु प्रयोग समाप्त हो जाने पर उसके अन्दर स्त्री सुलभ स्वाभाविक प्रेम हरिप्रसन्न के प्रति फूट ही पड़ा, भले ही उपन्यासकार उसे आगे बढ़ाने में हिचक गया हो । जैनेन्द्रजी ने 'सुनीता' को 'शरत' के 'गृहदाह' और 'रबि बाबू' के 'घरे - बाहिरे' से कुछ भिन्न रूप में उपस्थित करना चाहा था, पर कुछ खास सफलता उन्हें इसमें मिली नहीं । किस प्रकार बाहरी व्यक्ति के परिवार में प्रवेश पा जाने से घर-परिवार टूट जाता है, रबि बाबू ने इसी का उदाहरण अपनी रचना में प्रस्तुत किया है । काम सम्बन्धी शारीरिक प्रतृप्ति कोरी भावुकता पर गनैः शनैः किस प्रकार विजय पा जाती है और परिवार में बाहरी व्यक्ति के आ जाने से किस प्रकार उसे सहायता मिलती है, इसका उदाहरण 'गृहदाह' में मिल जाएगा । 'सुनीता' के आदर्शों की शिथिलता भी हरिप्रस1 के नैकट्य का परिणाम है, पर 'सुनीता' और उसके पति की पूर्व चेष्टायें कुछ स्वाभाविकताओं पर जान पड़ती हैं, यद्यपि लेखक ने अन्त में चलकर 'सुनीता' के हृदय में आकर्षण दिखलाकर उसे यथार्थ की भूमि पर लाना चाहा है । निरावरण नारी शरीर को देखने का आग्रह तो यथार्थ का अतिरेक ही नहीं बल्कि किसी ग्रन्थि का परिणाम जान पड़ता है, क्योंकि 'गांधियन सत्याग्रह' के लिये मानस परिवर्तन का यह रूप स्वीकार्य नहीं ।
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy