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नारी अधिकतर अर्थाभाव के कारण ही वेश्यावृत्ति स्वीकार करती है। जैनेन्द्र जी की दृष्टि में सामाजिक सुधार के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति की मनोवृत्ति में सुधार किया जाय ।
वैधव्य की समस्या
वैधव्य नारी-शोषण का एक अन्य रूप है। सम्भवतः समाज के अन्य किसी विधान के द्वारा नारी का इतना शोषण नहीं हुआ होगा। यह समस्या जहां एक ओर अनेक सामाजिक दोषों का परिणाम है वहीं दूसरी ओर कतिपय समस्याओं की जननी है। रूढ़ियों, परम्पराओं, प्रथाओं और प्राचीन मान्यताओं से ग्रस्त समाज में अनेक समस्याएँ स्वतन्त्र न रहकर कई सामाजिक दोषों की श्रृंखला में बँध जाती हैं। हिन्दू समाज में वैधव्य एक ऐसी ही जटिल समस्या रही है जो अनेक सामाजिक दोषों को आत्मसात् करती हुई व्यक्ति और समाज के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न बनी। विधवा बेचारी वैसे ही दुःख भार से बोझिल होती है, दूसरे अनुदार सामाजिक दृष्टिकोण उसका उठना बैठना, खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना सब दूभर कर देता है। पग-पग पर उसे परिवार में अवहेलना मिलती है। सौभाग्वती स्त्रियाँ उनकी छाया से भी दूर रहती हैं। ऐसी दशा में सचमुच उनके लिए पति के साथ सती हो जाना ही अधिक उपयुक्त लगता है, लेकिन यह समाधान ऐसा ही है जैसे अत्याचार सहते-सहते ऊबकर आत्महत्या कर ली जाय।
जैनेन्द्र जी ने इस समस्या को 1929 में 'परख' के प्रकाशन के पश्चात् एक नया मोड़ दिया और इसे बहुत कुछ भिन्न आयामों में प्रस्तुत किया। इसके पहले व्यक्ति के सामाजिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखकर ही उसकी समस्याओं पर विचार किया जाता था, लेकिन इन्होंने पहली बार व्यक्ति को प्रमुखता देकर सामाजिक समस्या को
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