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वेश्यावृत्ति का स्वरूप तो समाज में प्रकट है, किन्तु वेश्य तो सामाजिक दृष्टि से सम्मानीय बनकर समाज के शरीर में झूठ, चोरी बेइमानी का घातक विष फैलाता है । वस्तुतः जैनेन्द्र की दृष्टि में वेश्यावृत्ति की जड़ में शुद्ध अर्थासक्ति विद्यमान रहती है। वेश्यावृत्ति पूंजीवादी नीति का परिणाम है।
जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियों में वेश्यावृत्ति का जो स्वरूप दृष्टिगत होता है, उसके मूल में गरीबी ही विद्यमान है। निर्धनता के कारण वेश्या बनी नारी समाज से तिरस्कृत होकर अपने पति की आर्थिक सहायता करती है। 'अन्धे का भेद' शीर्षक कहानी में अन्धा भिखारी गली-गली गाकर भीख मांगता है और उसकी पत्नी परिवार से दूर समाज के कीचड़ में पड़ी गृहस्थी को चलाने के लिए जीविकोपार्जन करती है । वह अपने हाथों से अपने पति की आँखे फोड देती है। जिससे वह उसके कुकर्मो को देखकर दुःखी न हो । उसकी आत्मा पतित नहीं होती, किन्तु बाह्य रूप में वह कुछ भी करती है, किसी तरह ही सहन करती है। जैनेन्द्र ने अपनी इस कहानी में वेश्या नारी का जो रूप प्रस्तुत किया है, वह हृदय को झकझोर देता है। वस्तुतः जैनेन्द्र की दृष्टि में वेश्या समाज की उपेक्षित होकर भी सहानुभूति की प्रार्थिनी बनी रहती है।
'बिखरी' कहानी में पत्नी निर्धनता के कारण स्वयं को ऐसी संस्था से सम्बद्ध कर देती है, जिसका लक्ष्य उसके माध्यम से धनोपार्जन करना है । 'त्यागपत्र' में मृणाल सामाजिक सुरक्षा के लिए स्वयं को समाज के उस उपेक्षित स्थान पर ले जाती है; जहां मानव जीवन की समस्त संवेदना की पारस्परिक सहानुभूति पूर्णतः समाप्त हो जाती है। नारी केवल जड़ पदार्थ के रूप में उपभोग की जाती है। 'त्यागपत्र' में मृणाल निर्धनता के कारण भी समाज के उस दलित स्थल को स्वीकार नहीं करती है। वस्तुतः जैनेन्द्र के कथा साहित्य में
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