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जी के शब्दों में वेश्या पैसे के आरम्भ से पहले हो ही नहीं सकती-उजरत और कीमत देकर जब भोग के लिए नारी को प्राप्त करते है, तभी तो उसे वेश्या कहते हैं, कीमत पैसे के रूप में चुकाने की विधि ही न हो तो वेश्या की स्थिति नहीं बन सकती है। वे वेश्यावृत्ति के मूल में अर्थासक्ति को साध्य तथा काम वृत्ति को साधन के रूप में स्वीकार करते हैं। जैनेन्द्र ने समाज में फैली हुई ऐसी वेश्या-संस्थाओं पर प्रकाश डाला है, जिनके संस्थापकों की मनोवृत्ति के प्रति अनिच्छा होती है, किन्तु संस्था के माध्यम से अधिक से अधिक धनोपार्जन की ओर उनकी दृष्टि केन्द्रित रहती है। जैनेन्द्र के अपने शब्दों में 'लेकिन अर्थ व्यापार के विचार से अलग वेश्या के प्रश्न का विचार पल्लव ग्राही होगा यथा मूल ग्राही नहीं होगा, यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। वह आगे लिखते हैं -
____ 'वेश्या वह नहीं है जो अनेक को प्रेम करती है। वेश्या वह है जो पैसे की एवज में अपने को देती है। जैनेन्द्र ने वेश्या सम्बन्धी गम्भीर सत्य की ओर इंगित किया है। सामान्यतया वेश्या को अनेक पुरूषों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के लिए ही हेय माना गया है, किन्तु वेश्यावृत्ति के मूल में निहित नारी की विवशता की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता है। वह अर्थ के लिए अपने को देती है। वेश्यावृत्ति के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए ज्ञात होता है कि पुरुष की कामुकता ही नारी को विवश बनाती है। जैनेन्द्र वेश्या को किसी भी शर्त पर अमान्य नहीं करते। उनकी दृष्टि में यदि समाज वेश्या को हेय मानता है तो वेश्य (वेश्यावृत्ति में लिप्त) क्यों सम्माननीय हो सकता है? वेश्य की अर्थ लोलुपता वेश्या से कहीं अधिक घातक है, क्योंकि
38 जैनेन्द्र कुमार - समय और हम, पृष्ठ - 345 39 वही, पृष्ठ -247 40 जैनेन्द्र कुमार - समय और हम, पृष्ठ - 351
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