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एक दशा में अलग होगा। सेक्स के लिए यही जैनेन्द्र जी का दृष्टिकोण दिखायी पड़ता है।
सृष्टि के मूल में काम है। सृष्टि ईश्वर की कामना का ही परिणाम है । संसार स्त्री-पुरुष मय है। उनके मध्य का आकर्षण का केन्द्र काम-भावना ही है । अकेले जीवन की कल्पना निराधार I जैनेन्द्र के अनुसार जब अकेलापन घेर लेता है तभी काम उसे उद्धार करने के लिए आता है। काम जीवन का अनिवार्य सत्य है। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में काम द्वारा भोगोन्मुखता को प्रश्रय न मिलकर उसके प्रेम मूलक रूप को ही स्वीकार किया गया है। प्रेम में आत्मदान के साथ शरीर दान भी अनिवार्य ही नहीं स्वाभाविक भी है। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में 'प्रेम' शब्द का व्यापक अर्थों में प्रयोग किया गया है, अपनी समग्रता में प्रेम और सेक्स वर्जित नहीं हैं। डॉ० कुसुम कक्कड़ के शब्दों में राधा और मीरा के आदर्श को ही उन्होंने अपने साहित्य में विशेषतः स्वीकार किया है। 1 राधा-कृष्ण और मीरा भारतीय साहित्य ही नहीं, जीवन में ऐसे दो असामान्य और चिरन्तर आदर्श हैं, जिनके प्रेम के सम्बन्ध में शंका का प्रश्न ही नहीं उत्पन्न होता। उनके वैवाहिक जीवन में भी प्रेम अपनी चरम सीमा पर आरुढ था । राधा और मीरा के प्रेम इन्द्रियापेक्ष नहीं हैं, वरन् उसमें अतीन्द्रियता दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र ने अपने साहित्य में काम के सहज वेग को ही स्वीकार किया है। अर्थ और काम दोनों में से किसी को अंतिम नहीं मानते । अर्थ और काम तो जीवन की समानान्तर रेखाएँ हैं, जिनके मध्य जीवन यात्रा सम्भव होती है। उन्होंने सृष्टि के मूल में भी ईश्वरीय शक्ति की कल्पना की है। जैनेन्द्र के अनुसार सम्भोग की स्थिति में स्त्री-पुरुष इतने अहं शून्य हो जाते हैं कि उन्हें अपने अस्तित्व का बोध नहीं रहता। उस स्थिति में सृष्टि सम्भवतः ईश्वरी शक्ति का परिणाम प्रतीत होती है। 2
31. डॉ० कुसुम कक्कड - जैनेन्द्र का जीवन दर्शन, पृष्ठ - 195 32 जैनेन्द्र कुमार काम, प्रेम और परिवार, पृष्ठ - 116
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