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जैनेन्द्र ने सेक्स को मात्र भोगाकांक्षा के रूप में ही स्वीकार नहीं किया है, बल्कि अर्ध-नारीश्वर का भाव ही वह मूल सूत्र मानते हैं, जिससे स्त्री-पुरुष परस्पर बंधे हैं, स्त्री-पुरुष दोनों अपने में अपूर्ण हैं। वह एक दूसरे में अपने अभाव की ही पूर्ति नहीं करते, बल्कि वे पूर्णतया एकमेव होकर अपने अहं को विचलित करते हैं। जैनेन्द्र ने काम भावना में शारीरिक से अधिक आत्मिक स्थिति को स्वीकार किया है। कामवासना यदि शरीर तक ही सीमित रहे तो उसमें तृप्ति की भावना नहीं पैदा हो सकती। जब वह शरीर से आत्मा की ओर उन्मुख होती है तभी उसमें वैराग्य और सन्तुष्टि की भावना उत्पन्न होती है।
जीवन में सेक्स की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए जैनेन्द्र ने कथा साहित्य में भी उसकी अपेक्षा स्वीकार की है। इनके अनुसार अगर जीवन में सेक्स को बाहर निकाला जा सकता तो कथा साहित्य, जीवन-मर्म का शोध न कर पाता। ‘एकरात' 'रत्नप्रभा' 'निर्मम' 'राजीव' और 'भाभी' आदि कहानियों में उन्होंने स्त्री-पुरुष के निर्वैयक्तिक सम्बन्ध को ही स्वीकार किया है। वस्तुतः जैनेन्द्र के अनुसार काम को वासना मानने में घबराने की आवश्यकता नहीं है। जैनेन्द्र ने काम को यज्ञ के रूप में स्वीकार किया है। काम में व्यक्ति झपटकर भोग लेना चाहता है, यज्ञ में कहीं बिछकर मिट जाना चाहता है। "सुनीता' उपन्यास तथा ‘एकरात' कहानी में आत्मतुष्टि के अनन्तर एक दूसरे से दूर रहने में उन्हें शान्ति ही मिलती है तथा काम-जन्य छटपटाहट समाप्त हो जाती है। डॉ० कुसुम कुक्कड़ के शब्दों मे- 'जैनेन्द्र' ने काम चर्चा को ब्रह्मचर्य के रूप में स्वीकार किया है। क्योंकि उस अवस्था में व्यक्ति की अहंचर्या पूर्णतः विनष्ट हो जाती
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33 जैनेन्द्र कुमार - काम, प्रेम और परिवार, पृष्ठ - 124 34 डॉ० कुसुम कक्कड - जैनेन्द्र का जीवन दर्शन, पृष्ठ-197-198
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