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जाता है। जैनेन्द्र के अनुसार 'विवाह' जीवन को विस्तार देता है परिधीय केन्द्र नहीं देता है। विवाह के माध्यम से हम अपने प्रेम का विस्तार करने का समय पाते हैं। अगर विवाह प्रेम को बन्धन में डालने वाली वस्तु हो जाये, तो परिवार काल कोठरी है।
स्वत्वमूलक परिवार जकड़बन्द बन जाता है। उसमें जीवन का विकास रुक जाता है, किन्तु विवाह द्वारा प्रेम बन्द नहीं होता, बल्कि फैलने के लिए स्थान प्राप्त कर लेता है, तभी उसकी सत्यता प्रकट होती है। उनकी मान्यता है कि मर्यादा और प्रेम के मध्य छल के प्रवेश से मर्यादा की रक्षा सम्भव नहीं है। मर्यादा की रक्षा और प्रेम की इससे सिद्धि होती है, जहाँ इन दोनों का समन्वय बैठता हो, वहीं मर्यादा की रेखा है। यदि सुरक्षा अकेले चले तो असंगति उत्पन्न हो जायेगी और उच्छृखला आ जायेगी। वस्तुतः जैनेन्द्र प्रथम लेखक थे, जिन्होंने सामाजिक नियमों को ध्यान में रखते हुए भी जीवन में प्रेम को अनिवार्य रूप में स्वीकार किया है। उनके जीवन और साहित्य का एक मात्र उद्देश्य सत्य का उद्घाटन करना है। उनका साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं है, बल्कि वह मानव जीवन के अन्तर्द्वन्द्व को प्रकट करने में भी समर्थ थे। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में पुरातन एवं नूतन दोनों परम्पराओं, विचारधाराओं के पात्र हैं। जैनेन्द्र प्रेम और विवाह दोनों को स्वीकार करते हैं। जैनेन्द्र जी के अनुसार विवाह को भोग में ही सीमित कर देना अनिष्टकर है।
प्रेम विवाह
जैनेन्द्र प्रेम और विवाह को समानान्तर रूप से स्वीकार करते हुए भी प्रेम-विवाह के पक्ष में नहीं है। उन्होंने अपने साहित्य में प्रेम-विवाह को किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया है। यद्यपि प्रेम मूलक स्वतन्त्रता को देखते हुए उनका यह दृष्टिकोण असंगत सा
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