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प्रतीत होता है। जैनेन्द्र के अनुसार विवाह सामाजिक संस्कार है, अतः उसमे समझौते के हेतु अवकाश रहता है। प्रेम-विवाह व्यक्ति और समाज दोनो दृष्टियों से हानिप्रद है । उनके अनुसार, विवाह में प्रेम का आग्रह इतना अनिवार्य नहीं, जितना माता-पिता, गुरुजन, बन्धु-बांधव का सयोग और आशीर्वाद ।24 प्रेम-विवाह आवेश और आवेग की स्थिति मे ही होता है । उस समय विवेक बुद्धि कार्य नहीं करती । प्रेम मुक्त होता है । वह दायित्व नहीं ग्रहण करता, किन्तु जब प्रेम को विवाह में बद्ध कर दिया जाता है तो उसमें पारस्परिक सौहार्द से अधिक तनाव की सम्भावना रहती है। गृहस्थी यथार्थ जगत की घटना है। प्रेम अतीन्द्रिय तथा आत्मलोक की अभिव्यक्ति है। जैनेन्द्र के अनुसार व्यवस्थित विवाह में पारस्परिक तनाव होने पर भी एक दूसरे के प्रति घृणा और तिरस्कार की भावना नहीं उत्पन्न होती । 'प्यार का तर्क', कहानी में उन्होंने प्रेम-विवाह का पूर्ण निषेध किया है। इस कहानी में उन्होंने प्रेम-विवाह सम्बन्धी विचारों को बहुत स्पष्टता के साथ वर्णित किया है। जैनेन्द्र के अनुसार प्राप्ति की कामना में प्रेम का पोषण नहीं होता, प्रेम में त्याग अनिवार्य है। प्रेम पात्र से दूरी होने पर भी आत्मिक स्तर पर मिलन - सुख का सा आनन्द प्राप्त होता है, किन्तु प्रेम में वैवाहिक बन्धन उत्पन्न करने से घृणा अथवा तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो कि असहनीय है। प्रेम के अभाव में जीवन किसी प्रकार सम्भव हो सकता है, किन्तु घृणा मनुष्य के आपस के स्नेह और प्रेम को सदैव के लिए नष्ट कर देती है। विवाह रूमानी प्रेम पर टिक नहीं सकता। जैनेन्द्र के शब्दों में
'अपने को लेकर स्त्री-पुरुष को विवाह के क्षेत्र में साथी चुनने के लिए निकल जाना पड़े, इस अवस्था को बहुत उन्नत सामाजिक
24. जैनेन्द्र कुमार
- काम, प्रेम और परिवार, पृष्ठ - 40
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